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________________ १७६ चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ यह बिचारतो अपक्षपाति सम्यग्दृष्टी, भवभीरु जीवोंतों होता है, परंतु स्वयंनष्ट अपरनाशकाकोंतो स्वफ्रेंमें भी जैसी भावना नही आती है. इस वास्ते हे भोले श्रावको तुम जो आपना आत्मका कल्याण इच्छक हो, अरु परभवमें उत्तमगति, उत्तमकुल, पाकर बोधबीजकी सामग्री प्राप्त करणेके अभिलाषी होवे तो तरन तारन श्रीजिनमतसम्मत जैसें जैनमतके हजारो पूर्वाचार्योका मत जो चार थुइयों का है तिनको छोडके दृष्टी रागसें किसी जैनाभासके वचन पर श्रद्धा रखके श्रीजिनमतसें विरुद्ध जो तीन थुइयोका मत है, तिनकों कदापि काले अंगीकार करण तो दूर रहो; परंतु इनकों अंगीकार करणेका तर्कभी अपने दिलमें मत करो, क्योंके जो धर्म साधन करना होता है सो सब भगवान्के वचन पर शुद्ध श्रद्धा रखनेसें होता है, इसी वास्ते जो श्रद्धामें विकल्प हो जावे तो फेर जैसे महासमुद्रेमें सुलटा जहाज चलते चलते उलटा हो जावे तो उन जहाजमें बैठनेवालेका कहा हाल होवे ! तिसी तरें यहांभी जानना चाहीयें. इस वास्ते आप कोइकी देखा देखीसें किंवा किसी हेतु मित्रके पर सरागदृष्टी होनेसें मृगपाशके न्यायें तीन थुइरुप पाशमें मत पडना. इस्सें बहोत सावधान रहना चाहीयें. श्रीजिनवचन उत्थापनसें जमाली जैसे बडे बडे महान्पुरुषोंकोंभी कितना दीर्घ संसार हो गया है. यह बातों अलबता आप श्रावकोंमेसें बहोतसें जनोंने सुनी होवेगी तो फेर वो पुरुषोंके आगें आपनतो कुछभी गणतीमें नही है, तो फेर हमजादा कहा कहै. यह हमारी परम मित्रतासें हितशिक्षा है. सो अवश्य मान्य करोगे जिस्में आप सम्यक्त्वका आराधक होके संसारभ्रमणसें बच जावेगें, श्रीवीतराग वचनानुसार चलेंगे तो शीघ्रही आपना पदकों पावेंगे इस बातमें कुछभी संशय रखना नही. समजुतों बहुत क्या कहना. हमतो शंका दूर करणे वास्ते पूर्वाचार्योके रचे हूए बहोतसे ग्रंथोंका पाठ उपर लिखके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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