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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ पुनर्निवेदनाय वंदनं दत्वा भणंति इच्छामो अणुसठिं नमोस्तुवर्धमानाय इति स्तुति त्रयभणनं शक्रस्तवस्तोत्रभणनं दुक्खखउ कम्मक्खउ, आचार्योपाध्यायसर्वसाधु- क्षमाश्रमणाणि ॥ क्षमा, इच्छा, सज्जाउं संदिसावउं क्षमा० इच्छा० सज्जाउ करउं ॥ ततः स्वाध्यायं कृत्वा गुरुन् वंदित्वा यथाज्येष्ठं साधुवंदनम् इति दैवसिकप्रतिक्रमणविधिः ॥
(५७) इस उपरले पाठमें राइपडिक्कमणेके अंतमें चार थुइसें चैत्यवंदना करनी कही है. और दैवसिक प्रतिक्रमणे प्रारंभमें चार थुइसें चैत्यवंदना करनी कही है. श्रुतदेवताका अरु क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग करना और इन दोनोकी थुइयोंभी कहनी कही है.
(५८) तथा श्रीमदुपाध्याय श्रीयशोविजयगणिजीयें पांच प्रतिक्रमणेका हेतुगर्भित विधि लखी है, तिसका पाठ लिखते है । पढम अहिगारें वंदु भाव जिणेसरु रे ॥ बीजे दव्वजिणंद त्रीजे रे, त्रीजे रे, इग चेइय ठवणा जिणो रे ॥१॥ चोथे नामजिन तिहुयण ठवणा जिना नमुं रे ॥ पंचमें छठे तिम वंदुरे, वंदुरे. विहरमान जिन केवली रे ॥२॥ सत्तम अधिकारें सुय नाणं वंदिये रे, अठमी थुइ सिद्धाण नवमे रे, नवमे रे, थुइ तित्थाहिव वीरनीरे ॥३॥ दशमे उज्झयंत थुइ वलिय इग्यारमें रे, चार आठ दश दोय वंदो रे, वंदोरे, श्रीअष्टापदजिन कह्या रे ॥४॥ बारमे सम्यग्दृष्टी सुरनी समरणा रे, ए बार अधिकार भावो रे, भावो रे, देव वांदतां भविजना रे ॥५॥ वांदुं छु इच्छाकारि समस श्रावको रे, खमासमण चउदेइ श्रावक रे, श्रावक रे, भावक सुजस इस्युं भणे रे ॥६॥ तित्थाधिप वीर वंदन रैवत मंडन, श्रीनेमि नतितित्थ सार ॥ चतुरनार ॥ अष्टापद नति करी सुय देवया, काउस्सग्ग नवकार चतुरनर ॥८॥ परी. ॥ क्षेत्रदेवता काउस्सग्ग इम करो, अवग्रह याचन हेत ॥ चतुरनर ॥ पंच मंगल कही पूंजी संडासग, मुहपत्ति वंदन देत ॥ चतुरनर ॥९॥ परी.॥
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