________________
१६०
चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१
देवी भुवन देवता, खेत्र देवता, वेयावच्चगराणं इनके कायोत्सर्ग और इन सर्वोकी पृथग् पृथग् थुइ कहनी कही है. इस समाचारीके अंत श्लोकमें ऐसें लिखा है के श्रीअभयदेवसूरिजीके राज्यमें यह समाचारी रची गइ है. और इसी पुस्तककी समाप्तिमें ऐसें लिखा है इति श्रीखरतरगच्छे श्रीअभयदेवसूरिकृता समाचारी संपूर्णा ॥ यह पुस्तकभी हमारे पास है, किसीकों शंका होवे तो देख लेवे ।।
जैसें इस समाचारीमें विधि लिखि है, तैसेंही श्रीसोमसुंदरसूरिकृत, श्रीदेवसुंदरसूरिकृत, श्रीयशोदेवसूरिके शिष्यके शिष्य श्रीनरेश्वरसूरिकृत समाचारीयोंमें तथा श्रीतिलकाचार्यकृत विधिप्रपा समाचारीमें ऐसा लेख है सो यहां लिख दिखाते हैं।
(५४) श्रीतिलकाचार्य्यकृत सैतीस द्वारकी विधिप्रपा समाचारीका पाठ || पुनः गृही क्षमा, इच्छाकारेणतुब्भे अम्हं सम्यक्त्व० श्रुत० देशवि० सामायिक आरोपओ गुरु० आरोपणा गृहीइच्छाक्षमा० इच्छाकारेण तुम्हे अम्ह सम्य० श्रुत० देश० सामायिका रोपणत्थु निंदिकरऊ गुरु० करेइमो गृहीइच्छं ॥ क्षमा० इच्छाकारेण तुम्हे अम्ह सम्य० श्रुम्हे देश० सामायिकारोपणत्थं नंदिकरणत्थं चेइयाइं वंदावेह ततः समुत्थाय गुरुः समवसरणाग्रे स्थित्वा गृहिणं वामपार्वे निवेश्य ईर्यापथिकी प्रतिक्रमय्य प्रार्थितं चैत्यवंदनादेशं दत्वा गुरुः ससंघस्तेन सह चैत्यवंदनां करोति ।। तद्यथा ॥ समवसरणमध्ये रत्नसिंहासनस्थान्, जगति विजयमानान् चामरै :ज्यमानान् ॥ मनुजदनुजदेवैः संततं सेव्यमानान्, शिवपथकथकांस्तानर्हतः संस्तुवेऽहं ॥१॥ शिवयुवतिकिरीटान् शुष्कदुष्कर्मकंदान्, विमलतम समुद्यत्केवलज्ञानदीपान् ॥ अणुमनुजसुदेहाकारतेजः स्वरुपान्, अधिगतपरमार्थान् नौमि सिद्धान् कृतार्थान् ॥३॥ अतुलतुलितसत्त्वान् ज्ञातसिद्धांततत्त्वान्,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org