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________________ १४८ चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ थुइतिण्णि, वद्धमाणक्खरस्सरो पढई ॥ सक्त्थयत्थवं पढिअ, कुणइ पच्छित उस्सग्गं ॥१८॥ एवंता देवसियं ॥ (४८) भाषा :- इस उपरले विधिमें देवसि पडिक्कमणेमें प्रथम चैत्यवंदना चार थुइसें करणी पीछे अंतमें श्रुतदेवता और क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग करणा और तिनकी थुइओ कहनी ऐसे कहा है। यह धर्मसंग्रह प्रकरण श्रीहीरविजयसूरिजीके शिष्यके शिष्य श्रीमानविजय उपाध्यायजीका रचा हुवा है और सरस्वतीने जिनकों प्रत्यक्ष होके न्याय शास्त्र विद्या और काव्य रचनेका वर दीना. अरु जिनकों काशीमें सर्व पंडितोने मिलके न्यायविशारद न्यायाचार्यकी पदवी दीनी, और जिनोने अत्यद्भुत ज्ञानगर्भित एसे नवीन एक सौ ग्रंथ रचे है, और जिनोने अनेक कुमतियोंका पराजय कीया, और दुःकर क्रिया करी, षट्शास्त्र तर्कलंकारका वेत्ता, जैसे श्रीमदुपाध्याय श्रीयशोविजयगणीजीने जिस धर्मसंग्रह ग्रंथकू शोध्या है. अब जानना चाहीयें कि ऐसे ऐसे महान्पुरुषोके वचन जो कोई तुच्छबुद्धि पुरुष न माने तो फेर ऐसे तुच्छबुद्धिवालेका वचन मानने वालेसें फेर अधिक मूर्खशिरोमणि किसकू कहना चाहिये ? । हमकू यह बडा आश्चर्य मालुम होता है के श्रीरत्नविजयजी अरु श्रीधनविजयजी अपनी पट्टावलीमें श्रीजगच्चंद्रसूरिजी तपा बिरुदवालोंकू अपना आचार्य लिखते है, तद पीछे श्रीदेवसूरिजी, श्रीप्रभसूरिजी अर्थात् श्रीविजयदेवसूरिजी, श्रीविजयप्रभसूरिजी प्रमुख लिखते है, अरु लोकोंके आगें तपगच्छका नाम तो नही लेतें है. कोइ पूछे तिनकू अपने गच्छका नाम सुधर्मगच्छ बतलाते हैं. ऐसा कहनेसें तो इनोकी बडी धूर्तताइ सिद्ध होती है. क्योंके यह काम सत्यवादियोंका नही है. जेकर एक लिखना और दूसरा मुखसें बोलना ? और तपगच्छकी समाचारी जो श्रीजगच्चंद्रसूरि, श्रीदेवेंद्रसूरिजी श्रीधर्मघोषसूरिजी तथा तिनकी अवच्छिन्न परंपरासें चलती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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