SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ पाठ पढे. वेयावच्चगराणं इत्यादि ॥ इहां वली 'एता' जैसे शब्दसें १ सिद्धाणंबुद्धाणं, २ जो देवाणविदेवो, ३ इक्कोवि नमुक्कारो, अन्या अपि इस शब्दोसें १ उज्जितसेल." || २ चत्तारी अठ. ॥ तथा ३ जेय अईया सिद्धा इत्यादि इसी वास्ते इहां बहुवचन दीया है., नही तो द्विवचन देते पठंति ऐसी बहुवचन रुप क्रिया है. "सेसाजहिच्छा" शेष थुइयां जैसी इच्छा होवे तैसें कहे, यह आवश्यक चूर्णिके वचनका प्रमाण है. नव तत्र नियम इति ॥ न तद्वयाख्यानं क्रियते इति । ऐसा कहन कहते हूए. श्रीहरिभद्रसूरिपूज्य ऐसें ज्ञापन करते है के जो पाठ यहां चैत्यवंदनामें अपनी यथेच्छासें कहते है, तिसका व्याख्यान हम नही करते है, जो पाठ चैत्यवंदनामें निश्चयो कहने योग्य है, तिसका व्याख्यान करते है. तिसके व्याख्यान करनेसें वेयावच्चगराणं इत्यादि सूत्रकाभी व्याख्यान करा ॥ तथा चोक्तं । ऐसें यह पढके यावत् वेयावच्चगराणं इत्यादि पढे । इस कहनेसें वेयावच्चगराणं इत्यादि अवश्य पढने योग्यही है, यह सिद्ध हूआ. जेकर वेयावच्चगराणं यह पाठ अवश्य पढने योग्य न होता तो श्रीहरिभद्रसूरिजी अपनी प्रतिज्ञाप्रमाणे इस पाठका व्याख्यान न करते. जेकर यह "वेयावच्चगराणं" पाठाधिकारकों उज्जितादि अधिकारकी तरें केइ आचार्य पढते, केइ न पढते, तब तो यादृच्छिक होता. तब तो उज्जितादि गाथाकी तरें इसकाभी व्याख्यान श्रीहरिभद्रसूरिजी न करते, परंतु उनोने व्याख्यान करा है, इस वास्ते सिद्धादि गाथायोंके साथ वेयावच्चगराणं इत्यादि यह पाठ अनुविद्य अर्थात् प्रोता हुआ है, बिचमें टूटा हुआ नही है, इस वास्ते सिद्धाणं इत्यादि गाथायोंके साथ प्रोता हुआभी पढने योग्य है. __ अथ जेकर तुं कहेगा के ललितविस्तरामें श्रीहरिभद्रसूरिजीका करा हूआ व्याख्यान हमकू प्रमाण नही है तब तो सकल चैत्यवंदनाके क्रमका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy