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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१
__अनौचित्यप्रवृत्त होनेसें यद्यपि महान्पुरुष मथुराक्षपक था तोभी कुबेरदत्ता सम्यकद्दष्टी देवीके साथ अनौचित्यप्रवृत्ति करनेसें मिच्छामिदुक्कड देना पडा । आह च ।। रंकसे लेकर राजा पर्यंत जे पुरुष औचित्यप्रवृत्ति करनी नही जानते है, अरु वे पुरुष प्रभुता ठकुराइके तांइ चाहते है, परं ते पुरुष बुद्धिमानोके खिलोने है ।।१।। इहां यह तात्पर्य है के सदाकाल अपनी परकी अवस्था अनुरुप उचित प्रवृत्ति करके प्रवृत्त होना चाहियें सदा
औचित्य प्रवृत्ति करकें सर्वत्र प्रवर्त्तना चाहियें यह तात्पर्यार्थ है । इस कथन उपर मथुरा क्षपक और कुबेरदत्ता देवीका दृष्टांत कहा है ॥ तिस दृष्टांतका भावार्थ यह है के प्रथम मुनिके कहनेसें संतुष्ट होकें कुबेरदत्ता देवीने श्रीसुपार्श्वनाथस्वामीके वखतमें मथुरा नगरीमें श्रीसुपार्श्वनाथ अरिहंतका मेरु पर्वत सद्दश स्तुभ प्रतिमा सहित रचा. कितने काल पीछे अन्यदर्शनी और जैनीयोंका यह स्तुभ बाबत विवाद हुआ, उहां अन्यदर्शनी अपने मतका स्तुभ कहने लगे, और जैनीभी अपने मतका स्तुभ है जैसा कहने लगे. जब राजासें भी यह विवाद न मिटा तब श्रीसंघने तिस कालमें मथुराक्षपकनामा साधुकू अतिशयवान् जानके बुलाया. तिस मथुराक्षपक उपर पहिला कुबेरदत्ता देवीने संतुष्ट होके कहा था के हे मुनि में क्या तेरे मन इच्छित कार्यकू संपादन करूं ? तब मथुराक्षपक मुनिने कहाके मैं तपके प्रभावसें सर्व कर सक्ता हूं तो तेरे मन असंयताके साहाय्य वांछनेसें मुजे क्या प्रयोजन है ? तब कुबेरदत्ता रोष करके जती रही सो मथुराक्षपक फिरके आया तिसने तपसें देवीकों आराध्या. तब देवी प्रगट होके कहने लगी. में तेरा क्या कार्य करुं? तब मथुराक्षपक कहने लगा. श्रीसंघकी जीत कर. तब कुबेरदत्ताभी कहने लगी के तेरा मेरे असंयतिसें क्या प्रयोजन अब उत्पन्न हुवा के जिस्में तें मुजकों याद करा ? तदपीछे साधुने पश्चाताप करा और कुबेरदत्ता देवीसें
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