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पार न पामए सारया देवया सहसमुहि भणइ जइ रतिदीह ॥ ३९ ॥ अह - अणुक्काम अह अणुक्कमि पत्तु विहरंतु । सिरिपट्टणि सूरिवरो पवरसीस जाणेवि नियमणि । बत्तीस भवइ पढमपक्खि इक्कारसी दिणि । सिरिलोगहियायरियवर अप्पिय नियपयसिक्खा | संपत्तउ सुरलोय पहु बोहेवा सुरलक्खा ॥ ४० ॥ धनु सो वासरो पुन्नभर भासरो साजि वेला सहि अमियवेल । जत्थ नियसुहगुरू भाव कप्पत्तरू भत्ति गाइज्जए हरिस हेल ॥ ४१ ॥ सहलु मणुयत्तणं ताण लोयाण लहई ते सुक्खसंपत्ति भूरिं । सुद्धमण संठियं थूभ पडिमठ्ठियं जेय झायंति जिणउदयसूरिं ॥ ४२ ॥ एहु सिरिजिणउदयसूरिनियसामिणो कहिउ मइ चरिउ अइमंदबुद्धि । अह सो दिक्खुगुरु देउ सुपसन्नउ दंसणनाणचारितसुद्धं ॥ ४३ ॥ एहु गुरुराय वीवाहलउ जे पढई जे गुणइ जे सुणंति । उभय लोगे वि ते लहई मणवंछियं मेरुनंदन गणि इम भांति ॥ ४४ ॥
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इति श्रीजिनोदयसूरि विवाहलउ समाप्त.
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