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मूळ अहिंसा छे, मद्य अने मांसनो तथा रात्रि भोजननो त्याग करवामां आवे तो अहिंसानुं पालन संभवी शके छे. तेमां मद्यने तो उत्तम माणसोए पीवानी चीजोमांथी बहार गण्युं छे माटे अपवित्र रसनी पेठे तेनो त्याग ज करवो जोईए माटे मनथो पण मद्यने पीवानी इच्छा छोडी देवी जोईए. मद्य पीवामां आवे तो धननो नाश ज थाय छे.
आपणी विशिष्टता - उत्तमता दूर निष्फळता सांपडे छे, कार्यनी हानि
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थाय छे, दरेक कार्यमां देखाय छे-थवा लागे छे पोतानां छिद्रो खुल्लां पडे छे, मित्रो पण आपण - जोईने लाजे छे, बुद्धि बगडी जाय छे, निर्मल शीळ तूटी जाय छे, वेरनी परंपरा पेदा थाय छे. धर्मकर्मथी चूंकी जवाय छे-भ्रष्ट थवाय छे, अयोग्य माणसो साधे पण मित्रभावे जोडावुं पडे छे, जे जे ठेकाणां जवां जेवां नथी त्यांय जवुं पडे छे, अभक्ष्यो सुद्धां खावां पडे छे, मोटा माणसो हांसी करे छे, स्वजनोनी मलिनता थाय छे अने नहीं बालवा जेवां वचनों बोलवां पडे छे, माटे आ मद्यपान अपवित्रतानुं खरेखर मूळ छे, वेरीओने पेसवानो मार्ग छे, क्रोध लोभ वगरे दोषोने मद्यपान जगाडे छे, पराभवाने आववा माटे ए संकेत समान छे अने अनथनी परंपरानो सभामंडप छे. वळी-
[१८५७]आ जगतमां मद्यपान प्राणीओ वच्चे प्रत्यक्षमां ज कलुष भाव देखाडे छे अर्थात् मद्य पीनारा परस्पर बाखडे छे ए प्रत्यक्ष छे, तेथी पापना मूळरूप एवं मद्यपान शी रीते चंगु उत्तम होई शके ? १
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