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तेन पथारीमां न जोतां ते, तेनी पाछळ दोडी गई. कर्म धर्मना संयोगने लोधे धात्री बराबर ज्यां फांसामां लटकती रत्नावली हती ते ज जग्याए पहोंची गई अने चन्द्रनी चांदनीना प्रकाशमां तेणे (धात्रीए) रत्नावलीने गळे फांसो खाती जोई. पछी तो धात्री हाय हाय एम जोरथी बूम मारती तत्कालिक बीजो कोई उपाय पोते करी शके एम न होवाथी जोर जोरथी कहेवा लागी के-भो भो देवो ! व्यंतरो ! खेचरो ! बचावो बचावो अने आ स्त्रीरत्नने तेना जीवननी भिक्षा आपो, एनो फांसो कापी नाखो, उपेक्षा करीने एटले आ स्त्रीना जीवन तरफ बेदरकार रहीने पापरूप कादवमां न पडो.
आ तरफ पेलो कनकचूड विद्याधर अने सुरसेन कुमार फरता फरता ते जग्याए आवी चडचा, तेमणे धात्रीए जे घोषणा करी ते सांभळी पछी आकाशमांथी नीचे उतरीने फांसो तेमणे कापी नाख्यो, तेणीना देहेने चंपी करीने ठीक क्यों अने तेओए ए फांसो खानारी बाईने पूछयुं - हे सुतनु ! तारा आवा खराब विचारनुं - तारी आवी दुर्दशानुं - कारण कोण थयेल छे ? रतनावलीए लांबो नीसासो नाखीने कयुं -मारां नठारां कर्मों. कुमार बोल्यो - ए तो ठीक पण कोईक विशेष हेतु पण होवो जाईए ए जणाव । पछी रत्नावळी बोली के विशेष हेतु तो - महासेनराजाना पुत्र सुरसेन कुमारनो विरह ज विशेष कारण छे. पछी रत्नावलीने कुमारे ओळखी काढी अने तेने कर्तुं के, जो ए कुमार ज विशेष कारण होय तो आवो खराब विचार करवानुं रह्यं -माडी वाळ. आम का पछी रत्नावली पण कुमारने ओलखी गई अने
शरमथी आंख
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