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२९ की प्रशंसा की है- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह। मनुस्मृति, बौद्ध पंचशील, योग-सूत्र आदि इन्हीं पाँच का उपदेश करते हैं। ये गृहस्थ, श्रावक, उपासक के लिये भी देशकाल - समय के (शर्त के) अवच्छेद के साथ उपयोगी हैं; और यति संन्यासी भिक्षु, क्षपण, श्रमण के लिये भी अधिकाधिक मात्रा में उन अवच्छेदों को दिन दिन कम करते हुए परमोपयोगी हैं, जब वह सर्वथा समयों (शर्तो) से अनवच्छिन्न हो जाते है तब “महाव्रत' होकर सद्य: मोक्ष के हेतु होते है।
अहिंस-सच्चं च, अतेणगं च, तत्तो य बम्भं, अपरिग्गहं च, पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि, चरिज धम्मं जिणदेसियं बिदू ।
- धम्मसुत्त, श्लोक २ ब्राह्मण सूत्राध्याय के भाव वैसे ही है जैसे महाभारत के शांतिपर्व में कहे हुए प्राय: वीस श्लोकों के हैं; जिनमें से प्रत्येक के अन्तिम शब्द यह हैं "तं देवा ब्राह्मणं विदुः" । धम्मपद में भी “ब्राह्मण वग्गो' में ऐसे ही भाव के श्लोक हैं।
न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो; यम्हि सच्चं च धम्मो च, सो सुची सो च ब्राह्मणो। न चाहं ब्राह्मणं ब्रूमि योनिजं मत्ति-सम्भवं,
अकिंचनमनादानं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं । (धम्मपद) "महावीर वाणी" में कहा है,
अलोलुपं, मुहाजीविं अणगारं अकिंचनं, असंसत्तं गिहत्थेसु, तं वयं बुम माहणं । कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होई खत्तियो, वइसो कम्मुणा होई, सुद्दो हवइ कम्मुणा ।
- जैन आगम उत्तराध्ययन, अ० २५, गाथा २८-३२
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