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रत्नपरीक्षा
- ( २४३ ) ताणं चिय उप्पत्तिं भणामि सव्वाण पत्तैयं ॥१०॥ दक्षिणावर्तशङ्खमाह---
खीरोदहिसंभूयं विभूसणं सिरिनिहाणरायाणं । दाहिणवत्तं संखं मंगलनिलयं सुरिद्धिकरं ॥११॥ व,ति रेहकलियं पंचमुहं तह य सोलसावत्तं । इअ संखं विद्धिकरं संखिणि दीहा य हाणिकरी ॥१२॥ सिरिकणयमेहलजुयं काऊण य दुद्धिण्हा विऊण सया ।
मंतुच्चारणपुव्वं चंदणि कुसुमेहि पूइज्जा ॥१३॥ पूजामन्योऽयम्-ॐ ही श्री श्रीधरकरस्थाय पयोनिधिजाताय लक्ष्मीसहोदराय चिन्ति. तार्थसम्प्रदानाय श्रीदक्षिणावर्त्तशङ्खाय ॐ ही श्री जिनपूजायै नमः। इति पूजाविधिः
दक्खिणावत्तसंखोयं जस्स गेहम्मि चिट्ठइ । लच्छीसयं वरा तस्स जायए मंगलं सया ॥१४॥ जो नियभाले तिलयं खिविऊण य तत्थ चंदणं कुणइ । तस्स न पहवंति सया अहिसाइणिविज्जपमुहाणि ॥१५॥ नरनाहगिहे संखं बुड्ढिकरं रज्जरट्ठभंडारे । इयराण य रिद्धिकरं अंतिमजांईण हाणिकरं ॥९६॥ दाहिणवत्ते संखे खीरं खविऊण पियइ जा नारी । वंझावि सा पसूयइ गुणलक्खण संजुयं पुत्तं ॥१७॥
इति दक्षिणावर्तशखः ।। दीवंतरिसिरिभूमी सिवरुक्खं तत्थ हुंति रुद्दक्खा । एगाइ जा घउद्दस वयणा सव्वेवि सुपवित्ता ॥९॥ परमुत्तमेगवयणा सिरिनिलया बिग्घनासणी सहया । कणयजुया भूयसी सेसबणे धरिया हवइ महला ॥१९॥ नयमझे निक्खिविया संमुहनीरे घडेइ जा सरला । अग्गीए वि न उज्झइ एगमुही सा प रुदक्खा ॥१०॥ दुमुहा मंगल जणया तिमुहारिनासणी य घउरसमा । पंचमुहा पुण्णयरा सुपवित्ता निफ्फला सेसा ॥१०॥
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