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२६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक है.-प्रश्नोत्थानः कोमल वस्तुओ करतां जेओर्नु पगर्नु तळीयु कोमल छे" एवा भगवंत छ. वळी, "उत्तम पुरुषना एक हजार आठ लक्षणने धारण कर नार, आकाश गत चक्रवडे, आकाशगत छत्रबडे, आकाशगत चामरोवडे अने आकाशस्फटिकमय पादपीठसहित सिंहासनवडे" भगवंत उपलक्षित छ. आकाशस्फटिक एटले एक प्रकारनो अति निर्मळ स्फटिक, तन्मय-तेनुं बनेलं. 'उपलक्षित छे' ए अर्थ अध्याहार्य छे. "देवोए आगळ खेंचाता धर्मध्वजवडे" अहीं 'देवोए' ए अर्थ अध्याहारगम्य छे. वळी "भगवंत चौद हजार साधुओ अने छत्रीश हजार साध्वीओ सौथे परिवृत थाइ विहरे छेतेओ भगवंतनी साथे विहरे छे." वळी "भगवंत पूर्वानुपूर्वीए-आगळ आगळ-विहरता," पण पश्चानुपूर्वीए-पाछळ पाछळ-नहीं विहरता, एकगाम पछी बीजे गाम जता," 'ग्राम'नो अर्थ प्रतीत छे, अनुग्राम एटले गाम पछी- गाम, त्यां जता, "सुखे सुखे विहरता जे तरफ राजगृह नगर छे, जे तरफ गुणसिलक चैत्य छे ते तरफ आवे छे, आवी यथाप्रतिरूप अवग्रहने ग्रहण करी संयम अने तपवडे आत्माने भावता-वासित करता-भगवंत विहरे छे" अने समवसरणना वर्णकमां "श्रमण भगवंत महावीरना घणा शिष्यो हता, जेमांना केटलाक दीक्षित उपकुलना हता" इत्यादि साधु वगेरेनो वर्णक
__ _ मुठ जेवो अने वज्रना जेवो वळेलो छे; कटिप्रदेश-नितंब प्रमुदित उत्तम अश्व तथा सिंह करतां अधिक मोळ छे; गुह्यदेश सुजात अने उत्तम घोडा समान छे; उत्तम अश्वनी समान निरुपलेप छे; गति उत्तम हस्तिसमान विक्रम अने विलासवाळी छे; जंघाओ हाथीनी शुंढ जेवी सुजात छे जानुओ डावलाना ढांकणा जेवा गूढ छे; जंघाओ हरिणी, कुरुविंद-तृणविशेष-अने सूत्र वणवाना पदार्थ समान गोळ तथा चडता उतरना क्रमवाळी छ; धुंटिओ संस्थित, सुश्लिष्ट अने गूढ छे; पगो काचबा जेवा सुंदर अने सुप्रतिष्ठित छे; पगनी अंगुलीओ क्रमपूर्वक अने सुसंहत छ; अंगुलीओना नखो उन्नत, पातळा, लाल अने स्निग्ध छे.” (उववाइसूत्र-क. आ० मां, पृ० ४४ थी ५४ सुधी.)-अनु०
साधुनो
१. भगवंत महावीर चंपानगरी पधार्या ते वखतनुं आ बधुं अक्षरे अक्षर वर्णन औपपातिक-उववाइ-सूत्र (क०आ मां पृ० ५५ तथा५५-५८-५९) मां आपेलुं छे.-अनु० २. 'साहस्री' शब्द 'सहस्र' शब्दनो पर्याय-समानार्थक-छे. ३. 'सद्धिं संपरिबुडे' ए बे शब्दो न मूके अने एकलो ‘सद्धि-साथे' मूके तो 'साधुओनी साथे भगवंत' एवो अर्थ थाय अने एम अर्थ थवाथी जेम, 'आ पुरुष सगृह-घर सहित-छे' ए वाक्यनो अर्थ एवो थाय छे के, 'आ पुरुष घरवालो छे' पण 'आ पुरुषनी साथे घर छे' एम अर्थ थतो नथी, तेम 'साधुओनी साथे भगवंत' एटले 'भगवंत साधुओवाळा छे' एम अर्थ थाय पण विहरता भगवंतनी साथे साधुओ छे' एवो अर्थ ने पण थाय माटे 'भगवंतनी साथे चौद हजार साधुओ वगेरे विहरे छे' एम निश्चित अर्थ दर्शाववा 'संपरिवृत' शब्द मूक्यो छे एटले चौद हजार साधुओ साथे परिवरेला भगवंत.-श्रीअभयदेव. ४. औपपातिकसूत्रमा साध्वादिक वर्णक आ प्रमाणे छे:-केटलाक भोगकुलना निर्ग्रन्थो दीक्षित छे, केटलाएक राजकुलना, ज्ञातकुलना, कौरवकुलना, क्षत्रियकुलना दीक्षित छे, केटलाएक भटो, योद्धाओ, सेनापतिओ, शिक्षको, शेठीआओ, व्यवहारीआओ, अने बीजा घणा ए प्रकारना उत्तम जातिवाळा, कुळवाळा, रूपवाळा, विनयवाळा, विज्ञानवाळा, वर्णवाळा, लावण्यवाळा अने पराक्रमवाळा दीक्षित थयेला छे; वळी केटलाएक सौभाग्य अने कांतिवाळा, बहु धन अने धान्यना त्यागीओ, नरपति करतां अधिक गुणशालि, प्राप्त भोगवाळा, सुखथी परिवृतो, विषयसुखने किंपाकफल जेवा परिणाम भयंकर जाणी, आयुष्यने जलना परपोटा जेवू अने दर्भाग्रस्थित बिंदु जेवू जाणी, आ सर्व प्रतिलग्न अनित्यने रजनी माफक खंखेरीने हिरण्यने, सुवर्णने छोडी (यावत्) दीक्षित थयेला छे. वळी केटलाएक श्रमणो अर्धमासना पर्यायवाळा, मासना पर्यायवाळा ए ज प्रमाणे बे मास, त्रण मासना पर्यायवाळा यावत् अग्यार मासना पर्यायवाला छे;केटलाएक श्रमणो वर्ष पर्यायवाळा, बे वर्ष, त्रण वर्षना पर्यायवाळा छे; केटलाएक घणा वर्षना पर्यायवाळा संयम अने तपवडे आत्माने वासित करता विहरे छे. ते काले, ते समये श्रमण भगवंत महावीरना घणा निर्ग्रन्थो हता. जेओमांना केटलाक आभिनिबोधिक (मति) ज्ञानवाळा यावत् केवळज्ञानवाळा हता. केटलाएक मनोबली, वचनबली, कायवली हता, केटलाएक मनवडे शाप देवामां अने अनुग्रह करवामां समर्थ हता; केटलाएक वचनवडे अने केटलाएक कायवडे शाप अने अनुग्रहमां समर्थ हता; केटलाएक खेलौषधि (जेओनां नासिकाजन्य मळोनुं औषधिरूप थर्बु) प्राप्त हता. एवं जल्लोषधि (शरीरना मळो औषधिरूप थर्बु), विनुष् औषधि (मूत्रादिनुं औषधिरूप थर्बु), आमौषधि ( हस्तादिस्पर्शोनु औषधिरूप थवू) अने सौंषधि (सर्व शारीरिक वस्तुओर्नु औषधिरूप थर्बु) प्राप्त हता; वळो केटलाक कोष्ठबुद्धि (कोठामां पडेल अन्ननी माफक जेओनी बुद्धि अनश्वर-स्थिर-रहेछे), केटलाक बीजबुद्धि (बीज अनेक फलोर्नु उत्पादक छे तेम जेओनी बुद्धि इतर ज्ञाननी उत्पादिका छे), केटलाक पटबुद्धि-वस्नसमान बुद्धिवाळा केटलाक पदानुसारी (एक पदना श्रवणथी जे समस्त ग्रंथ जाणी शके ) छे, केटलाक संभिन्नश्रोताश्रव-एकसाथे भिन्न भिन्न 'इन्द्रियजन्य ज्ञानने जाणी शके छे; केटलाक क्षीराश्रव-क्षीरनी पेठे मिष्टभाषी छे; केटलाक मधुकाश्रव-मधनी पेठे मिष्टभाषी छे; केटलाएक सर्पिराश्रव-धृतवत् मिष्ट-. भाषी छे; केटलाएक अक्षीण महानसिक-थोडाघणा पण भोज्य पदार्थथी घणा माणसोने जमाडी शके छे, ए प्रमाणे केटलाक ऋजुमति, केटलाक विपुलमति, विकुर्वणऋद्धि (रूपान्तरादि करवू ) प्राप्त, केटलाएक चारणश्रमणो छे; केटलाक श्रमणो विद्याधरो, आकाशातिपाति छे; केटलाक कनकावलि तपने प्रतिपन्न छे, ए प्रमाणे केटलाक एकावली तपने प्रतिपन्न, केटलाक क्षुद्रसिंहनिष्कीडित तपने-तपकर्मने-प्रतिपन्न, केटलाक महासिंहनिष्क्रीडित तपने प्रतिपन्न; केटलाक भद्रप्रतिमा, महाभद्रप्रतिमा, सर्वतो भद्रप्रतिमा, आयंबिल वर्धमान तपकर्मने प्रतिपन्न, केटलाक मासिक भिक्षुप्रतिमाने प्रतिपन्न, ए प्रमाणे केटलाक द्विमासिक प्रतिमाने, त्रिमासिक प्रतिमाने यावत् सप्तमासिक भिक्षुप्रतिमाने प्रतिपन्न, केटलाक प्रथम सात रात्रिादिवसनी भिक्षुप्रतिमाने प्रतिपन्न; यावत् त्रीजी सात रात्रिदिवसनी भिक्षुप्रतिमाने प्रतिपन्न, अहोरात्र दिननी भिक्षुप्रतिमाने प्रतिपन्न, एक रात्रिदिननी भिक्षुप्रतिमाने प्रतिपन्न, सात सातमी भिक्षुप्रतिमाने, आठ आठमी भिक्षुप्रतिमाने, नव नवमी भिक्षुप्रतिमाने, दश दशमी भिक्षुप्रतिमाने, क्षुद्रकमानकप्रतिमाने प्रतिपन्न, महामात्र
ASHTHHATTIAHMETIMATER HAPTEST S ERIASIAH माता, प्रतिमाने प्रतिपन्न, यवमध्यचंद्रप्रतिमाने, वज्रमध्यचंद्रप्रतिमाने प्रतिपन्न थया सता आत्माने संयम अने तपवडे वासित करता विहरे छे. ते काले, ते समये श्रमण भगवंत महावीरना घणा स्थविर शिष्यभगवंतो जातिसंपन्न, कुलसंपन्न, बलसंपन्न, रूपसंपन्न, विनयसंपन्न, ज्ञानसंपन्न,दर्शनसंपन्न, चारित्रसंपन्न, लज्जासंपन्न, लाघवसंपन्न, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी-बलिष्ठ, यशस्वी हता. जेओए क्रोधने, मानने, मायाने, लोभने, इन्द्रियोने, निद्राने अन्ः परीषहोने जीत्या छे; जेओने जीवितनी आशा अने मरणनो भय नथी; जेओ व्रतप्रधान, गुणप्रधान, करण-(करणसित्तार) प्रधान, चरण-(चरणमित्तरि ) प्रधान, इंद्रियनिग्रहप्रधान, निश्चयप्रधान, आर्जवप्रधान, मार्दवप्रधान, लाघवप्रधान, क्षमाप्रधान, मुक्तिप्रधान, विद्याप्रधान, मंत्रप्रधान, वेद--ज्ञान-प्रधान; ब्रह्मप्रधान, नयप्रधान, नियमप्रधान, सत्यप्रधान, शौचप्रधान, चारुवर्णवाळा, लज्जातपस्वी, जितेन्द्रिय, शुद्ध, अनिदान-निदान नहीं करनारा; अल्पौत्सुक्य-उतावळ नहीं करनारा, नियमप्रधान, 'अवहिलेश्या-जेओनो आत्मपरिणाम चारित्रथी बहार नथी, अप्रतिलेश्या-प्रतिकूळ लेश्यारहित, सुश्रामण्यरत-सारा साधुपणामां अनुरक्त अने दान्त,आज निर्ग्रन्थप्रवचनने आगल करी विहरे छे,ते श्रमणभगवन्तोए आत्मवादोजाण्या छे,परवादो जाण्या छे,आत्मवादने गणीने जेम नलवनमा मत्तमातंगो रमे तेम आत्मवादे रमनारा, जेओना प्रश्नो अने उत्तरो निश्छिद्र छे, जेओ रत्नकरंडकसमान, कुत्रिकापण (त्रिलोकीनी
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