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३१४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक २.-उद्देशक १०. ७६. गोहाः
७६. गाथा:पुढवोदही घण-तण कप्पा गेवेजणुत्तरा सिद्धी, पृथिवी, उदधि, घनवात, तनुवात, कल्प, अवेयक, अनुत्तरो संखेज्जइभागं अंतरेसु सेसा . असंखेजा,
अने सिद्धि. ए बधानां अंतरो धर्मास्तिकायना संख्येय भागने अडके
छ भने बाकी बधा धर्मास्तिकायना असंख्य भागने अडके छे, भगवंतसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते बीए सये दसमो उद्देसो सम्मत्तो. ७.. अथाऽनन्तरोक्तान् धर्मास्तिकायादीन् प्रमाणतो निरूपंयन्नाह-'धम्मत्थिकाए' इत्यादि. 'केमहालए' त्ति लुप्तभावप्रत्ययाद् निर्देशस्य किं महत्त्वं यस्याऽसौ किंमहत्वः, 'लोए' ति लोकः-लोकप्रमितत्वात् , लोकव्यपदेशाद् वा, उच्यते च-"पंचेस्थिकायमइयं लोय" इत्यादि. लोके चासौ वर्तते, इदं चाऽप्रनितमप्युक्तम् , शिष्यहितत्वादाचार्यस्येति. लोकमात्रो लोकपरिमाणः, स च किञ्चिन्यूनोऽपि व्यवहारतः स्यात् , इत्यत आहः-लोकप्रमाणः-लोकप्रदेशप्रमाणत्वात् तत्प्रदेशानाम् , स चान्योन्यानुबन्धेन स्थित इत्येतदेवाह-'लोयफुडे' त्ति लोकेन लोकाकाशेन सकलखप्रदेशैः स्पृष्टो लोकस्पृष्टः. तथा लोकमेव च सकलखप्रदेशैः स्पृष्ट्वा तिष्ठति इति. 'पुद्गलास्तिकायो लोकं स्पृष्ट्या तिष्ठति' इत्यनन्तरमुक्तमिति स्पर्शनाधिकारादधोलोकादीनां धर्मास्तिकायादिगतां स्पर्शनां दर्शयन् इदमाह-'अहोलोए णं' इत्यादि. 'सातिरेगं अद्धंति लोकव्यापकत्वाद् धर्माऽस्तिकायस्य, सातिरेकसप्तरज्जुप्रमाणत्वाच्च अधोलोकस्य. 'असंखेजइभागं' ति असंख्यातयोजनप्रमाणस्य धर्मास्तिकायस्य, अष्टादशयोजनशंतप्रमाणस्तिर्यग्लोकोऽसंख्यातभागवर्तीति तस्याऽसावसंख्येयं भागं स्पृशतीति. 'देसोणं अद्धं' ति देशोनसप्तरज्जुप्रमाणत्वाद् ऊर्यलोकस्य इति. 'इमाणं भंते !' इत्यादि. इह प्रतिपृथिवि पञ्च सूत्राणि, देवलोकसूत्राणि द्वादश, प्रैवेयकसूत्राणि त्रीणि, अनुत्तरे-पत्प्राग्भारासूत्रे द्वे,एवं द्विपञ्चाशत् सूत्राणि-धर्मास्तिकायस्य 'किं संख्येयं भागं स्पृशति'इत्याद्यमिलापेनावसेयानि, तत्र अवकाशान्तराणि संख्येयभागं स्पृशन्ति, शेषास्त्वसंख्येयभागमिति निर्वचनम् . एतान्येव सूत्राणि अधर्मास्तिकाय-लोकाकाशयोरिति. इहोक्तार्थसंग्रहगाथा भाविताथैव इति.
श्रीपञ्चमाङ्गे गुरुसूत्रपिण्डे शतं स्थितानेकशते द्वितीयम् ।
. अनैपुणेनापि मया व्यचारि तत्सूत्रयोगज्ञवचोऽनुवृत्त्या ॥१॥ धर्मास्तिकाय केवडो? ७. हवे हमणां कहेल धर्मास्तिकायादिकने प्रमाणथी निरूपतां कहे छे के, ['धम्मत्थिकाए' इत्यादि.] [ 'महालए' ति] धर्मास्तिकायर्नु लोक जेवडो. केटलं महत्त्व छे-धर्मास्तिकाय केटलो मोटो छे? ['लोए' ति] धर्मास्तिकाय लोक जेवडो छे माटे अथवा ते संबंधे 'लोक' शब्दनो
' व्यपदेश थाय छे माटे, ते लोक छे. कथुछे के,-"लोक पंचास्तिकायमय छे” इत्यादि. अथवा ते, लोकमां रहेलो छ माटे 'लोक' कहेवाय
छे. आचार्य शिष्यना हितैषी होवाथी (तेओए) आ वातनो उत्तर पूछ्या विना पण आप्यो छे. ते लोकपरिमाण छे, काइक ओछो होय तो पण व्यवहारथी लोकपरिमाण कहेवाय माटे कहे छे के, ते लोकप्रमाण छे-जेटला प्रदेशो लोकना छे तेटला प्रदेशो धर्मास्तिकायना पण छे. ते परस्पर मळीने रहेलो छे. ए ज वातने कहे छे के, ['लोयफुडे' ति] तेना बधा प्रदेशो लोकाकाशनी साथे अडकेला छे माटे ते 'लोकस्पृष्ट' छे. तथा ते (धर्मा
स्तिकायादि ) पोताना बधा प्रदेशो वडे लोकने अडकीने रहेलो छे. 'पुद्गलास्तिकाय लोकने अडकीने रहेलो छे' ए वात हमणां कही छे माटे अर्थात् स्पर्शना स्पर्शनानो अधिकार होवाथी हवे धर्मास्तिकायादि संबंधी अधोलोकादिनी स्पर्शनाने देखाडतां आ सूत्र कहे छे के, [ 'अहोलोए गं' इत्यादि.]
[ 'सातिरेगं अद्धं' ति ] कारण के धर्मास्तिकाय लोकव्यापी छे अने अधोलोकनुं प्रमाण सात रज्जु करतां कांइक वधारे छे. [ 'असंखेजहभागं'ति] कारण के धर्मास्तिकायनुं प्रमाण असंख्यात योजन छे अने तिर्यग्लोकनुं प्रमाण अढारसे योजननु छ माटे तिर्यग्लोक धर्मास्तिकायने असंख्यात भागे छे अने तेम छ माटे ते, तेना असंख्य भागने अडके छे. ['देसोणं अद्ध' ति] कारण के ऊर्यलोकनुं प्रमाण देशोन सात रजु-सात रजु करतां काइक ओछु-छे. ['इमा णं भंते !' इत्यादि.] अहीं प्रत्येक पृथिवी विषे पांच सूत्रो अर्थात् साते पृथिवीनां मळीने पांत्रीश सूत्रो, देवलोक विषे बार सूत्रो, अवेयक विषे त्रण सूत्रो, अनुत्तर विमान अने ईषत्प्राग्भारा विषे वे सूत्रो; ए प्रमाणे बा मळीने बावन सूत्रो कहेवां, अने ए सूत्रोमां 'शु धर्मास्तिकायना संख्येय भागने अडके छ ?' ए प्रमाणे अभिलाप कहेवो. तेमां 'अवकाशांतरो संख्येय भागने अडके छे अने बीजा बधा असंख्येय भागने
अडके छे' ए उत्तर छे. वळी अधर्मास्तिकाय अने लोकाकाश संबंधे पण ए ज सूत्रो कहेवा. अहीं कहेल अर्थसंग्रहगाथानो अर्थ स्पष्ट ज छे. वितरणकारनी निर
जेमा रहेलां शतको अनेक ऍ पंचमांग गुरुसूत्र युक्त, भिमानिता भने
विचार्यु तेनुं शतक द्वितीय सूत्रज्ञवाक्ये चतुरौइहीणे. शतक समामि
१. मूलच्छायाः-गाथाः-पृथिव्युदधी घन-तन कल्पा प्रैवेयकाऽनुत्तरी सिद्धिः, संख्येयभागम्-अन्तरेषु शेषा असंख्येयाः-अनु. १. प्र. छाः-पञ्चास्तिकायमयं लोकम्:-अनु. . १. अहीं भावसूचकप्रत्यय-व-नो लोप थएलो छे:---धीअभय०. २. श्रीटीकाकारे आ विवरण, सूत्रज्ञ पुरुषोनां वाक्योने अनुसरीने कर्यु छे एम मा विशेषणथी जाणवार्नु छे. ३. आ विशेषण श्रीविवरणकार-श्रीअभयदेवसूरि-र्नु छ भने तेनुं निरभिमानिपणुं सूचवे छे:--अनु.
द्वितीय शतक समाप्त.
बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् , दायी यः सदुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपखी। अस्माकं बीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योद, दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिववर मारहा चाप्तमुख्यः ॥१॥
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