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२८८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक २.-उद्देशक ५. तात्पर्य ए के, रागनो भाग कर्म बंधन कारण होय ज छे माटे रागवाळी स्थितिमा तपेल तप अने आचरेल संयम, ए बन्ने देव थवामां कारण छे. कर्मिपणु. ['कम्मियाए' ति] कर्मवाळो होय ते 'कर्मी' अने तेनो जे स्वभाव ते कर्मिता कर्मिपणुं-तेवडे. बीजाओ तो कहे छे के,-"कर्मनो विकार ते संगिप'. 'कार्मिका'-तेवडे अर्थात् कर्मना बाकी रहेल भागवडे देवपणुं पामी शकाय छे. ['संगियाए' त्ति] संगवाळो होय ते 'संगी' अने तेनो जे स्वभाव
ते संगिता-संगिपणु-तेवडे-द्रव्यादिकमा संयमादिथी युक्त पण संग कर्म बंधनुं कारण छे माटे ते संगिपणाथी देवपणुं पामी शकाय छे. कयुं छे केः
"रागवाळा प्राणिना तप अने संयम ते 'पूर्वतप' 'पूर्वसंयम' कहेवाय अने वीतरागना तप तथा संयम ते 'पश्चिमतप' अने 'पश्चिमसंयम' कहेवाय. तैनी सत्यता शाथी? राग एटले संग, संगथी कर्म बंधाय छे अने तेनाथी संसार उपजे छे." [ 'सचे ' इत्यादि.] आ वात साची छे, शाथी ? तो कहे छे केःआत्मश्लाघा विनाना- ['नो चेवणं' इत्यादि.] जेओ मात्र पोतानो अभिप्राय ज जणावे पण वस्तुस्वरूपने न कहे ते 'आत्मभाववक्तव्य' अर्थात् अभिमानी-तेपणुं अने छ तेथी. तेवडे-अमे अमारी बडाइ जणाववा कांइ कहेता नथी, पण ए प्रमाणे साची वात छे माटे कहीए छीए एम भावना करवी.
७. 'अतुरिअंति कायिकत्वरारहितम्, 'अचवलं' ति मानसचापलरहितम् , 'असंभंते' ति असंभ्रान्तज्ञानः, 'घरसमुदाणस्स' गृहेषु समुदानं भैक्षं गृहसमुदानम् , तस्मै गृहसमुदानाय 'भिक्खायरियाए' त्ति भिक्षासमाचारेण,-'जुगंतरपलोअणाए' ति युगं यूपः तत्प्रमाणमन्तरं वदेहदेशस्य, दृष्टिपातदेशस्य च व्यवधानं प्रलोकयति या सा युगान्तरप्रलोकना, तया दृष्ट्या, 'रियं' ति ईर्या गमनम् , 'से कहमेअंमने एवं ति अथ कथम् एतत्-स्थविरवचनम् 'मन्ये' इति वितर्कार्थो निपातः एवम्-अमुना प्रकारेण, इति बहुजनवचनम् . 'प्रभ ण ति प्रभवः-समर्थाः, 'ते समिआ ण ति 'सम्यग्' इति प्रशंसाधुं निपातः, तेन सम्यक्त्वे व्याकर्तुं वर्तन्ते-अविपर्यासास्ते इत्यर्थः, समञ्चन्तीति वा सम्यञ्चः, समिता वा सम्यक्प्रवृत्तयः, श्रमिता वा अभ्यासवन्तः, 'आउजिअ त्ति आयोगिकाः-उपयोगवन्तो
ज्ञानिन इत्यर्थः-जानन्तीति भावः. 'पलिंउजिअ त्ति परि समन्तात्, योगिकाः परिज्ञानिन इत्यर्थः-परीजानन्तीति भावः. अत्वरित वगेरे. ७.['अतुरिअं' ति] शारीरिक चपलता सिवाय, ['अचवलं' ति] मानसिक वेग सिवाय, [ 'असंभंते' त्ति ] असभ्रांत ज्ञानवाळो, ['घरसमुदाणस्स'] युगांतर प्रलोकन. समुदान एटले भिख, घरोने विषे जे भिख ते गृहसमुदान-तेने माटे, ['भिक्खायरियाए' त्ति] भिक्षा लेवानी विधिपूर्वक, [ 'जुगंतरपलोअणाए' ति]
चालती वखते पोताना शरीरनो भाग अने नजरे भळातो भाग, एबे भागनी वच्चे (सरा जेटलं जे अंतर ते 'युगांतर' कहेवाय, युगांतर सुधी ते एम केम! जोनारी नजर ते युगांतर प्रलोकना-तेवडे, ['रियं' ति] ईर्या अथवा गमन-जवू. [ से कहमेअं मैन्ने एवं' ति] 'हवे ए स्थविरनुं वचन ए प्रमाणे प्रभु. समित. केम होय ?' ए प्रमाणे अनेक माणसोनू कहेवं छे. ['पभू णं' ति] ते साधुओ समर्थ छे ? ['ते समिआ णं' ति] सम्यक्त्व विषयक कथन करवामां आयोगिक. समर्थ छे-विपरीत ज्ञान विनाना छे ? अथवा तेओ सारी प्रवृत्तिवाळा के अभ्यासिओ छे ? ['आउजिअ ति] उपयोग-ज्ञान-वाळा छे-शुं तेओ प्रायोगिक. ए वातने जाणे छे । [ 'पलिउजिअ ति] सर्व प्रकारे ज्ञानवाला छे ?
८. अनन्तरं श्रमणपर्युपासनासंविधानकम् उक्तम् . अथ सा यत्फला तदर्शनार्थम् आह-तहारूवं' इत्यादि. तथारूपम्-उचितस्वभावम् । कंचनपुरुषम् , श्रमणं वा तपोयुक्तम् , उपलक्षणत्वादस्य उत्तरगुणवन्तर्मित्यर्थः. माहनं वा-खयं हनननिवृत्तत्वात् परं प्रति 'मा हन' इति वादिनम् ,उपलक्षणत्वादेव मूलगुणयुक्तमिति भावः 'वा' शब्दौ समुच्चये, अथवा श्रमणः साधुः, माहनः श्रावकः. 'सवणफले' त्ति सिद्धान्तश्रवणफला, 'णाणफले' त्ति श्रुतं ज्ञानफलम् , श्रवणाद् हि श्रुतज्ञानमवाप्यते, "विनाणफले' त्ति विशिष्टज्ञानफलम् , श्रुतज्ञानाद् हि हेयोपादेयविवेककारि विज्ञानमुत्पद्यते एव, 'पञ्चक्खाणफले' त्ति विनिवृत्तिफलम् , विशिष्टज्ञानी हि पापं प्रत्याख्याति, 'संजमफले' त्ति कृतप्रत्याख्यानस्य हि संयमो भवत्येव, 'अणण्हयफले' त्ति अनाश्रवफलः, संयमवान् किल नवं कर्म नोपादत्ते, 'तवफले' त्ति अनाश्रवो हि लघुकर्मत्वात् तपस्यतीति. 'वोदाणफले' त्ति व्यवदानं कर्मनिर्जरणम् , तपसा हि पुरातनं कर्म निर्जरयति, 'अकिरियाफले'त्ति योगनिरोधफलम् , कर्मनिर्जरातो हि योगनिरोधं कुरुते, 'सिद्धिपज्जवसाणफले' त्ति सिद्धिलक्षणं पर्यवसानफलम्-सकलफलपर्यन्तवर्तिफलं यस्याः सा तथा, 'गाह' त्ति संग्रहगाथा. एतल्लक्षणं चैतद् "विषमाक्षरपादं वा" इत्यादि छन्दःशास्त्रप्रसिद्धमिति..
साधुसेवार्नु उत्तरो- ८. आगळना प्रकरणमा साधुसेवा विषेनी हकीकत कही छे अने हवे ते साधुसेवाथी शुं लाभ थाय छे ते वातने देखाडवा कहे छे केः-['तहारूवं' चर फळ. इत्यादि.] तथारूप-उचित स्वभाववाळा-कोइ पुरुषने अथवा तपस्वि श्रमणने, आ वात उपलक्षणरूप होवाथी कोइ पण उत्तरगुणवाळाने, वा
माहनने, जे पोते हिंसाथी अळगो होय अने बीजाने 'हणो नहीं' एम कहेनारो होय, ते 'माहन'. आ वात उपलक्षणरूप होवाथी कोइ पण शाखश्रवण, 'मूलगुणवाळाने' अथवा श्रमण ते साधु अने माहन ते श्रावक-तेने. ['सवणफले' ति] शास्त्रनुं श्रवण करवू ए साधुओनी सेवानुं फळ छे. शान. विज्ञान. ['णाणफले' त्ति] शास्त्रनुं श्रवण करवाथी ज्ञान थाय छे-श्रुतज्ञान, सांभळवाथी ज थाय छे, ['विन्नाणफले' त्ति] श्रुतज्ञानथी विज्ञान थाय छे*प्रत्याख्यान. श्रुतज्ञानथी 'आ चीज त्यजवा लायक 'छ' 'आ चीज राखवा लायक छे' ए प्रमाणे विवेक करनारं विज्ञान थाय ज छे, ['पञ्चक्खाणफले' ति] संयम. विज्ञानथी निवृत्ति मळी शके छ अर्थात् जेने विशेष ज्ञान होय ते पापथी अटके छे, ['संजमफले' त्ति] निवृत्ति पामनार मनुष्यने संयम होय अनामत्र. तप. ज छे, [ 'अणण्हयफले' ति] संयमर्नु फळ अनाश्रव छ अर्थात् संयमवाळो जीव नवं कर्म बांधतो नथी, ['तवफले' त्ति] आश्रव विनानो जीव व्यवदान, भक्रिया. हळुकर्मी होवाथी तप करे छे, [ 'बोदाणफले' ति] व्यवदान एटले कर्मनु खरी पडवू, तप करवाथी जूनुं कर्म नाश पामे छे, [ 'अकिरियाफले' त्ति] सिद्धि.
अने तेम थबाथी बधा योगो निरोधाय छे अर्थात् कर्मनी निर्जरा थवाथी जीव योगनो निरोध करे छे, [ 'सिद्धिपजवसाणफले' त्ति] अने योग निरोध करवाथी सौथी छेवट -छेलामा छेलु-सिद्धि-मुक्ति-रूप फळ मळे छे. [गाह' ति] गाथा एटले संग्रह गाथा. एनुं लक्षण "जेना पाद विषम अक्षरवाळा होय" इत्यादि प्रकारे छंदःशास्त्रमा प्रसिद्ध छे.
१. आ शब्द वितर्कसूचक अव्यय छे. २. बन्ने 'वा' शब्द समुच्चयसूचक छ:-श्रीअभय.
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