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२७६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक २.-उद्देशक ५. "मागशर अने पोष महिनामां संध्यानो रंग थाय, मेघो कुंडाळावाळा देखाय, मागशर महिनामा बहु ठंड न पडे अने पोष महिनामां हिम बहु पडे।" कायमवस्थ. ( इत्यादि.) ए वां उदकगर्भनां निशानो छे. ['कायभवत्थे णं भंते !! इत्यादि.] माताना पेटनी बच्चे रहेल गर्मनुं शरीर ते काय'
कहेवाय. ते शरीरमा जे उत्पन्न थर्बु ते 'कायमव' कहेवाय अने तेमां ज जे जन्म्यो होय ते 'कायभवस्थ' कहेवाय. ते कायभवस्थ, चोवीस वर्ष.. कायभवस्थरूपे ['चउवीसं संवच्छराई' ति] चोवीश वर्ष सुधी रहे. ते, कया प्रकारे चोवीश वर्ष सुधी रहे छे? ते वातनो खुलासो
करतां जणावे छे के, जेम कोइ एक जीव होय अने तेनुं शरीर गर्भमां रचाइ गडे होय. पछी ते जीव, ते शरीरमा पोतानी माताना उदरमा बार वर्ष सुधी रही, मरण पामी पालो पोते रचेल तेना ते शरीरमा उत्पन्न थइ फरीने पाछो बार वर्ष सुधी रहे. अने ए प्रकारे
ते चोवीश वर्ष सुधी कायाभवस्थरूपे रही शके छे. केटलाको कहे छे के,-"बार वर्ष सुधी रहीने, फरीने बीजा वीर्यवडे त्यां ज तेज मनुष्य अने तिर्यंचना • शरीरमां बार वर्षनी स्थितियुक्त थइने जन्मे, ए रीते चोवीश वर्ष गणाय." [ 'एगजीवे णं भंते !' इत्यादि.] मनुष्यो अने तिर्यंचोनुं वीर्य बार विजमां बिजल्वशक्ति. मुहूर्त सुधी योनिभूत गणाय छे, अर्थात् बार मुहर्त सुधी ते वीर्यमां संतानोत्पादिका शक्ति रहे छे. ज्यारे एम छे त्यारे बार मुहूर्त जेटला काळमां गाय दार मुहूर्त. वगैरेनी योनिमां पडेलुं बसेंथी नवसे सांढ वगेरेनुं पण वीर्य, ते वीर्य ज गणाय अने ते वीर्यना समुदायमा जे एक जीव उत्पन्न थाय छे ते, ते बधाएक भवमा एक जी- ओनो (जेओनुं वीर्य योनिमा गएडं छे) पुत्र कहेवाय. माटे ज कह्यु छे के, ['उक्कोसेणं सयपुहुत्तस्स' त्ति ] ['सयसहस्सपुहुत्तं' ति ] माछलां वगेरे वना बसेंथी नवसें ज्यारे एकवार संयोग करे छे त्यारे पण तेना गर्भमां बेथी नव लाख जीवो पुत्ररूपे उत्पन्न थाय छे अने जन्म पण ले छे माटे एक जीवने एक भवमा पिता ने बेथी
" बेथी नव लाख पुत्रो होइ शके छे. तथा मनुष्यस्त्रीनी योनिमा जो के घणा जीवो उत्पन्न थाय छे, पण तेओ जेटला उत्पन्न थाय छे तेटला बधा जन्मता नब लाख पुत्र.
'नथी. [ 'इत्थीए पुरिसस्स य'] ए वाक्यनो [ मेहुणवत्तिए नाम संजोए समुप्पजइ'] आ वाक्य साथे संबंध करवो. ए संयोग कयां उत्पन्न थाय छ ? तो कहे छे के, [ 'कम्मकडाए जोणीए' ति] नामकर्मथी बनेल योनिमां अथवा जेमां कामोत्तेजक क्रिया थइ छे ते योनिमां. मैथुनवृत्तिक एटले मैथुननी वृत्तिवाळो अथवा मैथनप्रत्ययिक-मैथुनरूप हेतुवाळो.'नाम'ति] नाम अने नामवाळानो काल्पनिक रीते अभेद पण होइ शके छे माटे ते 'संयोग' नुं नाम 'मैथुनवृत्तिक' के मैथुनप्रत्ययिक' कहुं छे. संयोग एटले संपर्क-संबंध. ते बन्ने-स्त्री अने पुरुष-उभयतः वीर्य अने लोहीनो संबंध करे छे'
आगळना सूत्रोमां ['मेहुणवत्तिए नाम संजोए' ति] मैथुनवृत्तिक' के 'मैथुनप्रत्ययिक' नामनो संयोग थाय छे एम कयुं छे माटे हवे मैथुनमा ज मेथुनयी यतो रहेलं असंयमनुं हेतुपणुं प्ररूपवा आ सूत्र कहे छः-['रूयनालिअंव' त्ति] रूतनालिका एटले जेमां रू भरेलुं छे तेवी पोला वांसडा वगैरेनी नळी तेअसंयम. तेने, ए प्रमाणे बूरनालिका संबंधे पण समजवु. विशेष ए के, बूर एटले एक जातनी वनस्पतिनो एक जातनो भाग- ['समभिधंसेज्ज' त्ति] रू वगेरेनो
नाश करवाथी तेनो ध्वंस करे. अहीं आ प्रमाणेनुं वाक्य अध्याहृत जाणवुः-ए प्रकारे मैथुनने सेवतो पुरुष पोताना मेहन-पुश्चित-द्वारा योनिमा रहेल जीवोनो नाश करे छे. "ते जीवो पांच इंद्रियवाळा छे" एवी वात बीजा ग्रंथमां संभळाय छे. [ 'एरिसिएणं' इत्यादि.] ए उपसंहारसूत्र छे.
तुंगिका अने राजगृह नागरमा प्रश्नोत्तर. ३४.-तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ, ३४.-त्यार पछी श्रमण भगवंत महावीर राजगृह नगरथी, गुण गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमइत्ता बहिया ज- शिलक नामना चैत्यथी नीकळी बहार जनपदविहारे विहरे छे. ते काळे, णवयविहारं विहरइ. तेणं काले णं, ते णं समए णं, तंगिया नाम ।
- ते समये तुंगिको नामनी नगरी हती. वर्णक. ते तुंगिका नगरीम
बहार-उत्तर अने पूर्वना दिग्भागमा पुष्पवती नामर्नु चैत्य हतुं नयरी होत्था. वण्णओ. तीसे णं तुंगियाए नयरीए बहिया उत्तर
" वर्णक. त्या तुंगिका नगरीमा घणा श्रमणोपासको-श्रावको-रहेत पुरथिमे दिसीभागे पुष्फवतीए नाम चेइए होत्था. वण्णओ. तत्थ हता. ते श्रमणोपासको आय-अढळक धनवाळा अने देदीप्यमान णं तुंगियाए नयरीए बहवे समणोवासया परिवसंति, अड्डा, दित्ता, हता. तेओनां रहेवानां भवनो-घरो-विशाळ अने घणां उंच वित्थिन-विपुलभवण-सयणा-ऽऽसण-जाण-वाहणाइण्णा, बहुधण- हता. तथा तेओनी पासे शयनो-पथारीओ, आसनो, गाडा बगे
'मेघमाला' नामना संस्कृत ग्रंथमा पण 'उदकगर्भ' विषे नीचे प्रमाणे जणाव्यु छ:
"सर्ववर्णास्तथा मेघा जायन्ते च पृथक् पृथक्, कार्तिके चैत्रमासे तु "कार्तिक अने चैत्र मासमा बधा रंगवाळा मेघो जूदा जूदा पडी जाय ईदृशं गर्भलक्षणम्. कार्तिके पुष्पनिष्पत्तिर्मार्गे स्नानं मतं किल, पौषे त्वत्र शुभो ते 'उदकगर्भ'नु निशान छे, कार्तिक महिनामां फुलनी उत्पत्ति, मागशरमां वातो नित्यं माधो धनान्वितः. फाल्गुनः फल्गुवातः स्यात् चैत्रे किंचित् पयो- स्नान, पोष मासमा सुंदर वायु, महा मासमा वरसाद, फागण मासमां दितम्, वैशाखः पञ्चरूपी च ज्येष्ठश्चोष्मान्वितः शुभः"-(मेघमाला, कर्ता सुंदर पवन, चैत्र मासमा कांइक काइक वादळां, वैशाख मासमा पचरंगी विजयप्रभसूरि श्लोक-५-६-७).
हालत अने जेठ मासमां गरमी पडे" ए बधां 'उदकगर्भ' ना निशानो छे. -(मेघमाला, कर्ता विजयप्रभसूरि, श्लोक--५-६-७):-अनु०
१. मूलच्छायाः-ततः श्रमणो भगवान महावीरो राजगृहाद् नगरात्, गुणशिलकात् चैत्यात् प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य बहिः जनपदविहार विहरति. तस्मिन काले, तस्मिन् समये, तुगिका नाम नगरी अभवत् . वर्णकः. तस्याः तुगिकाया नगर्याः बहिः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे पुष्पवती नाम चैत्यम्-अभवत्. वर्णकः, -तत्र तुझिकायो नगयों बहवः श्रमणोपासकाः परिवसन्ति, आढ्याः , दीप्ताः, विस्तीर्ण-विपुलभवन-शयना-ऽऽसन-यान-वाहनाऽऽकीणोः, बहुधन-:-अनु.
१. आ तुंगिआ (तुंगिका ) नगरी कये ठेकाणे छे ते माटे नीचेनी टुंकी हकीकत पण उपयोगी छ:-"असी कोस बली तिहां थकी पाटलिपुर विख्यात . त3 Ixxx दस कोस नयरी तुंगिआ ए संप्रतिनाम विहार तउ । "-(धीसमेतशिखररारा, पृ. ३-४, रा-रा-चीमनलाल डा०) ताप्तये एक, बनारसया (काशीथी) एसी कोश दूर पाटलिपुर (पटणा) नामर्नु शहेर छे अने त्यांधी दस कोश (गाउ) दूर तुंगिआ नामनी नगरी छे. आ वात लखाया आज ३११ वर्ष थयां छे:-अनु.
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