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शतक २.-उद्देशक २.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
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केवलिषु भवति. अथ समुद्धातः इति कः शब्दार्थः ? उच्यते, सम् इति अणुओने खंखेरवा आ 'समुद्घात' नामनी क्रिया करे छे. ज्यारे कोइ जीव एकीभावे.उत् प्राबल्ये, एकीभावेन प्राबल्येन घातः समुद्धातः केन सह एकी- वेदना (पीडा) थी रिवाय छे त्यारे ते अनंतानंत कर्मस्कंधोथी विटाएला भावगमनम् । इति चेदू उच्यते, अर्थाद् वेदनादिभिः. यदा आत्मा वेदनादि- पोताना प्रदेशोने शरीरथी बहारना भागमा पण प्रसरावे छे. ते प्रदेशो समुद्धातगतो भवति, तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानपरिणत एव भवति, नान्यज्ञा- मुखना अने जठर (होजरी) वगेरेना पोलाणमां तथा कर्मस्कंधादिना नपरिणतः. प्राबल्येन कथं धातः? इति चेद् उच्यते, इह वेदनीयादि- आंतरामां भराइ रहे छे तथा लंबाइ अने पहोलाइमां शरीर जेटली जग्यामा समुद्धातपरिणतो बहुन् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तराऽनुभवयोग्यान् व्यापीने एक अन्तर्मुहूर्त सुधी ते प्रकारे जीव रहे छे अने तेटला काळमां ते, उदीरणाकरणेन भाकृष्य, उदयावलिकार्या प्रक्षिप्य, अनुभूय निर्जरयति- अशाता वेदनीय कर्मनां घां पुद्रलोने (जे कर्म पुद्गलोनो रस बीजे वखते भात्मप्रदेशैः सह संक्लिष्टान् शातयतीति भावः.xxx तथाहि-वेदनासमु- अनुभवमा आवनार छे तेने पण उदीरणाकरणवडे खेंची, उदयावलिकामा द्वातः असद्वेद्यकर्माश्रयः, कषायसमुद्धातः कषायाख्यचारित्रमोहनीयकर्माश्रयः, नाखी वेदे छे)-पोता उपरथी खंखेरी नाखे छे-खेरवी नास्त्रे छे. ए मारणान्तिकसमुद्धातोऽन्तर्मुहूर्तशेषायुःकर्माश्रयः, वैकुर्षिक-तैजसा-ऽऽहारक- क्रियानुं नाम 'वेदनासमुद्धात' छे. ज्यारे जीव कषायना उदयथी घेराड समुद्धाता यथाक्रमं वैक्रियशरीर-तैजसशरीर-आहारकशरीरनामकर्माश्रयाः, जाय छे-क्रोधादियुक्त दशामां होय छे-त्यारे ते पोताना प्रदेशोने बहारना केवलिसमुद्धातः सदसवेद्यशुभाशुभनामोचैनीचैर्गोत्रकर्माश्रयः. तत्र वेदना- भागमा प्रसरावे छे अने ते प्रदेशो मुख अने पेट वगेरेना पोलाणमा तथा समुद्धातगत आत्मा असातवेदनीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोति. तथाहि- कर्म स्कंधादिना आंतरामा भराइ रहे छे. तथा शरीर जेटली लांबी अने वेदनापीडितो जीवः स्वप्रदेशान् अनन्तानन्तकर्मस्कन्धवेष्टितान् शरीराद् पहोळी जग्यामां व्यापीने ते प्रकारे जीव, एक अंतर्मुहूर्त सुधी रहे छे अने बहिरपि विक्षिपति, तैश्च प्रदेशैवेदन-जठरादिरन्ध्राणि कर्मस्कन्धाद्यपान्तरा- ए प्रमाणे रहीने एटला वखतमां कषायकर्मनां घणां पुद्गलोने ते पोता लानि च आपूर्य आयामतो विस्तरतश्च शरीरमात्रं क्षेत्रम्-अभिव्याप्य उपरथी खेरवी नाखे छे अने ते क्रिया 'कषायसमुद्घात'ना नामे ओळखाय अन्तर्मुहूर्त यावद् अवतिष्ठते. तस्मिश्च अन्तर्मुहूर्ते प्रभूताऽसातावेदनीयकर्म- छे. कोइ एक जीव पोतानुं चाल आयुष्य भोगवे छे अने ते आयुष्य भोगपुद्गलपरिशातं करोति. कषायसमुद्घातसमुद्धतः कषायाख्यचारित्रमोहनीय- वां भोगवतां ज्यारे मात्र अंतर्मुहूर्त जेटलं आयुष्य बाकी रहे छे त्यारे कर्मपुद्गलपरिशातं विधत्ते. तथाहि-कषायोदयसमाकुलो जीवः प्रदेशान् ते, पोताना प्रदेशोने बहार प्रसरावे छे अने ते प्रदेशो मुख अने पेटना बहिर्विक्षिपति, तैः प्रदेशैः वदनो-दरादिरन्ध्राणि कर्मस्कन्धाद्यपान्तरालानि च पोलाणमा तथा स्कंधादिना आंतरामा भराइ रहे छे तथा शरीर करता भार्य आयामतो विस्तरतश्च देहमानं क्षेत्रम् अभिव्याप्य वर्तते. तथाभूतश्च ओछामा ओछी आंगळना असंख्येय भाग जेटली मोटी अने वधारेमा प्रभूतान् कषायकर्मपुद्गलान् परिशातयति. एवं मरणसमुद्घातगत आयुः- वधारे असंख्य योजन मोटी जग्यामा व्यापीने ते प्रकारे जीव, एक अंतफर्मपुद्गलान् परिशातयति, नवरम्-मरणसमुद्धातगतो विक्षिप्तखप्रदेशो मुंहूर्त सुधी रहे छे अने तेटला वखतमा ते, आयुष्य कर्मनां अनेक पुद्गलोने वदनोदरादिरन्ध्राणि स्कन्धाद्यपान्तरालानि चाऽऽपूर्य विष्कम्भ-बाहुल्याभ्यां पोता उपरथी खेरवी नाखे छे, आ क्रिया 'मरणसमुद्घात'ने नामे जैन स्वशरीरप्रमाणम् आयामतः,खशरीरातिरेकतो जघन्यतोऽलासंख्येयभागम्, परिभाषामां प्रसिद्ध छे. देवोमां, नारकिओमा, पवनमा अने केटलाक उत्कर्षतोऽसंख्येयानि योजनानि एकदिशि क्षेत्रम् अभिव्याप्य वर्तते इति मनुष्य तथा पंचेंद्रिय तिथंचोमां रूप फेरववानी शक्ति होय छे अर्थात् वक्तव्यम् . वैक्रियसमुद्धातगतः पुनर्जीवः प्रदेशान् शरीराद् बहिनिष्कास्य पोताना शरीरने लांबुं करवू, टुंकू करवं, पहोलू करवू, उचुं करवू, सांकडे शरीरविष्कम्भवाहल्यमानम् आयामतः संख्येययोजनप्रमाणं दण्डं निसृजति, कर, सुंदर लावण्यवार्ट्ज करवू के पोतार्नु रूप बदली बीजुं रूप घर ए निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्वत् शातयति. xx प्रकारनी शक्ति होय छे. ते शक्तिने माटे जैनशास्त्रमा विक्रिया' शब्दनी xxx एवं तैजसा-ऽऽहारसमुद्धातावपि भावनीयो. नवरम्-तैजससमुद्धातः वपराश छे. अने ते शक्तिथी फारफेर थइ जे काइ बने छे तेने 'वैक्रियशरीर' तेजोलेश्याविनिर्गमकाले. स च तैजसनामकर्मपुद्गलपरिशातहेतुः. आहारक- कहेवामां आवे छे. जेम कोइ एक प्रमत्त मुनि होय, तेनुं शरीर जीण. समुद्धातगतस्तु आहारकशरीरनामकर्मपुद्गलान् परिशातयतीति. केवलिसमु. प्राय थयु होय. अने ते एवं इच्छे के मारे मारुं शरीर सुंदर, पुष्ट अने एक द्वातगतः केवली सदसवद्यादिकर्मपुद्गलपरिशातं करोति. xxx नैरयिकाणाम् देव सरखं बनावq छे तो ते, पोताना प्रदेशोने बहार एक दंडना आकारमा आद्याश्चलारो वेदनादिसमुद्धाताः.xx असुरकुमारादीनां सर्वेषामपि देवानां प्रसरावे छे. ते दंडनी पहोळाइ अने जाडाइ तो पोताना शरीर जेटली ज (आद्याः) पञ्च समुद्घाताः.xx वायुकायवर्जएकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियाणाम् थवा दे छे. पण तेनी लंबाइ संख्येय योजन जेटली करे छे. तेम करीने भाद्यास्त्रयः समुद्घाताः.xx वायुकायिकानां पूर्वे त्रयो वैक्रियसमुद्घात- ते, एक अंतर्मुहूर्त सुधी टके छ भने तेटला वखतमां वैक्रियशरीर नामसहिताश्चत्वारः. xx पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् (आद्याः) पञ्च. xx कर्मनां स्थूल पुदलोने (जेने लइने शरीरनुं सौंदर्य हीj थयुं छे) पोता मनुष्याणां तु (आद्याः) षडपि. xx (श्रीमलयगिरिसूरि, प्रज्ञापना, पृ०७९३ उपरथी खेरवी नाखे छे अने वैक्रियशरीर नाम कर्मनां बीजां नवां तथा ७९४-८२६. क० आ०):-अनु०
सूक्ष्म पुद्गलोने (जेने लइने शरीरने धारे तेवू करी शकाय छे) ले छे.
आ क्रियाने जैन पंडितोए 'वैक्रियसमुद्घात'नुं नाम दीधुं छे. तपस्विओने तपस्या करता जेम अनेक विभूतिओ मळे छे तेमांनी एक 'तेजोलेश्या' नामनी पण विभूति छे, जे तेजोलेश्याना प्रभावे अनेक गाम के अनेक देशोने तपस्वी सळगावी मूके छे. ज्यारे तेजोलेश्यानो विनिर्गम थाय छे त्यारे तैजससमुद्घात थाय छे अने ते समुद्घातथी तैजस नामकर्मनां पुनलो आत्माथी छुटां पडी विखराइ जाय छे. ए प्रमाणे आहारकसमुद्घात विषे पण समजवु अर्थात् जैनशास्त्रकारोए पांच प्रकारना शरीरो कहां छे. ( जूओ तत्त्वार्थसूत्र, अ० २, सू० ३७ थी ३९) तेमां एक 'आहारक' नाम, पण शरीर छे. ते शरीर सर्व जीवोने नथी होतुं पण मनुष्योने अने तेमां पण चौदपूर्वना जाणनारने ज ते आहारकशरीर होय छे. ते चौदपूर्वी आहारकसमुद्घात करे छे अने ते द्वारा पोताना आत्मा उपर रहेला आहारक शरीर नामकर्मनां पुदलोने विखेरी नाखे छे. हवे एक छेलो केवळिसमुद्घात छे. अने तेनुं स्पष्टीकरण आ छ:-जेने केवळज्ञान होय ते ज केवळिसमुद्धात करी शके छे. मात्र आ एक ज समुद्घातनो वखत आठ समय जेटलो छे अने एटला वखतमा केवळी जीव, केवळिसमुद्घात द्वारा पोता उपर रहेला आयुष्य सिवायनां त्रण अघाती कर्मनां पुतलोने खेरवी नाखे छे. ए प्रमाणे साते समुदवात संबंधी संक्षिप्त विवेचन यही जणान्यु छे. विशेष जाणवानी इच्छावाळा महाशयोए उपर कयुं ते प्रज्ञापनासूत्रनुं समुद्घात पद जोQ तथा स्थानांगसूत्रमा चोथु स्थान (क. आ. पृ० ३४१) अने सातमु स्थान (क. आ० पृ. ४६८) मूळ अने टीका साये गवेषवं. 'समुद्घात' शन्दनो अर्थ टोकाना अनुवादमा विवेचायो छे माटे तेने अहीं फरीथी लख्यो नथी. एटलं जणाववार्नु छ के, केटला समुद्घात कोने होय? ते आ छे:-सात समुद्घातमांना पहेला चार, नैरयिकोने होय छे. असुरकुमार वगेरे देवोने पहेला पांच समुद्घात होय छे. वायुकाय-पवनना जीव-सिवाय बीजा एकेंद्रिय अने विकलेंद्रिय (बे इंद्रिय वगेरे) जीवोने पहेला त्रण समुद्घात होय छे. वायुकायने पहेला चार समुद्घात होय छे. पंचेंद्रिय तिर्यचोने पहेला पांच समुद्घात होय छे
वखत आठधात हे. अनेने के द्वारा पा
ए उपर कार्यु ते प्रशमटासा साये गवेषवं. 'समृदयात ते आ के
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