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शतक १.-उद्देशक १०. . भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
२१७ किरिआ' इत्यादि.] क्रिया एटले कायिकी वगेरे क्रिया. ज्यां सुधी ते क्रिया कराती नथी त्यां सुधी ['दुक्ख' ति] दुःखमां हेतुरूप छे. ['कज्जमाण' ति कराती क्रिया दुःखमां हेतुरूप नथी. ज्यारे क्रियानो समय बीती जाय छे एटले 'क्रिया कराय छे' ए व्यवहार मटीने, 'क्रिया कराएली छे' एवो व्यवहार थाय छे त्यारे करेली क्रिया ['दुक्खे' ति] दुःखमां हेतुरूप छे. आ पण तेओर्नु ज युक्तिविनानुं मत छे. अथवा अभ्यास (टेव) न होवाने लीधे पहेलो क्रिया दुःखरूप लागे छे. पछी अभ्यास पडी जवाथी कराती क्रिया दुःखरूप नथी लागती अने क्रिया कर्या पछी पश्चात्ताप थाय छे, अथवा थाक वगेरे लागे छे तेथी करेली क्रिया दुःखरूप लागे छे. ['करणओ दुक्ख' त्ति करणने आश्रीने करवाने वखते-करता पुरषने. ['अकरणओ दुक्ख' त्ति] अकरणने आश्रीने-नहीं करता पुरुषने. ['नो खलु सा करणओ दुक्ख' ति] कारण के, क्रियानी अक्रियमाण स्थितिमा तेने (ते क्रियाने) दुःखरूपे स्वीकारेली छे. ['सेवं वत्तव्वं सिया'] ए प्रमाणे पूर्वोक्त वस्तु वक्तव्य छे. कारण के, ए उपपन्न-युक्तियुक्त छे. हवे बीजा कोइ अन्ययूथिकनुं मत कहे छे के, अकृत्य एटले भविष्यत्काळनी अपेक्षाए जीवोवडे अनिर्वर्तनीय-अनिष्पाद्य-नहीं उपजे तेवं. दुःख एटले सुख नहीं अथवा तेनुं कारण कर्म, तथा अकृत्य होवाथी ज अबंधनीय-न बंधाय तेतुं छे. तथा वर्तमान काळे करातुं ते क्रियमाण अने भूतकाळे कराएलं ते कृत, ते बन्नेनो निषेध करवाथी अक्रियमाणकृत, अर्थात् वणे काळे पण कर्मना बंधनो निषेध होवाथी दुःखने नहीं करीने नहीं करीने. कोण ? तो कहे छे के, प्राणो, भूतो, जीवो अने सत्त्वो. ए प्राण वगेरेनुं स्वरूप आ छ:-"बे इंद्रियवाळा, त्रण इंद्रियवाळा अने चार इंद्रियवाळा जीवो 'प्राण' कहेवाय छे. वृक्षाने 'भूतो' कहेवाय छे. जे पांच इंद्रियवाळा होय ते 'जीवो' कहेवाय छे अने बाकीना बधा-पृथिवी वगेरेना जीवो-'सत्त्वो' कहेवाय छे." वेिअणं ति] सारा के नरसा कर्मने अथवा पीडाने अनुभवे छे, एम वक्तव्य छे, कारण के ए रीते ए युक्तियुक्त छे. लोकमां जे काइ सुख के दुःख देखाय छे ते वधु यादृच्छिक छे. कयुं छे के, "माणसोने जे काइ विचित्र सुख के दुःख थाय छे ते बधुं अतर्कितोपस्थित छे-विचार सिवाय थाय छे.-जेम; कागडाने बेसवु अने ताड़ने पडवू ते प्रमाणे ए बधुं थाय छे. पण कांइ बुद्धिपूर्वक थतुं नथी, माटे में कयु' एवं अभिमान राखq ए नकामुं-खोटं-छ." ['से कहमेयं ति] हे भगवन् ! अन्ययूथिके कहेल न्याये ए प्रमाणे ए केम होइ शके ? ए प्रश्न छे. [जणं ते अन्नउत्थिआ' इत्यादि.] ए उत्तर छे. एनी व्याख्या पूर्वनी पेठे जाणवी. अने ते बधुं मिथ्या-खोटुं-आ प्रमाणे छ:-जो चालतुं ज कर्म प्रथम ते प्रकापनी समये चलित-'चालेलु' न होय तो बीजा समयोमां पण ते कर्म अचलित ज होय-कोइ पण समये ते कर्म चाले ज नहीं. माटे ज वर्तमानने पण " विवक्षावडे लागतुं अतीतपणुं विरुद्ध नथी. ए. विषे आगळ ज निर्णय कर्यो छे. माटे फरीथी कहेता नथी. जे कां छे के, चलित कर्म जे काम करे छे ते काम चालतुं कर्म नथी करतुं माटे चालताने 'चलित' केम कहेवाय ? ते कथन अयुक्त छे. कारण के प्रतिक्षणे उत्पन्न थता 'स्थास,' (घडो बनावती वखते माटीने जे पहोळी करवी ते 'स्थास' कहेवाय.) कोश वगेरे उत्पन्न थया पछी छेवटे-छल्ले क्षणे-उत्पन्न थनारु घटरूप कार्य प्रथम क्षणे-घट करवाना आरंभ समय-असत् होवाथी पोतानुं कर्तव्य न करे ए युक्तियुक्त ज छे. अने अहीं कुतीर्थिकोए अंत समयनुं चलित कर्म जे कार्य करे छे, ते कार्यने 'कार्य' तरीके कल्पेलुं छे. हवे जो ते कार्यने आद्य समयनुं चलित कर्म न करे तो तेओ एवो दोष दइ शकता नथी के, चलित कर्मनी पेठे कार्य न करवाथी 'चालतुं' कर्म चलित कहेवातुं नथी. तेनुं कारण ए के, दरेक कारणो पोत पोतानां कार्यों करे छे. पण बीजुं कारण बीजा कारणना कार्यने नथी करतुं तेम छतां एमां दोष देवो ते काइ ज नहीं एम गणवू युक्त छे.
२. यच्चोक्तम्-'द्वौ परमाणू न संहन्येते, सूक्ष्मतया स्नेहाभावात् तद् अयुक्तम्, एकस्याऽपि परमाणोः स्नेहसंभवात् , सार्धपुद्गलस्य संहतत्वेन तैरेव अभ्युपगमाञ्च. यत उक्तम्-'तिण्णि परमाणु-पोग्गला एगयओ साहणति, ते भिज्जमाणा दुहा वि, तिविहा वि कजंति. दुहा कज्जमाणा एगयओ दिवड़े' त्ति अनेन हि सार्धपुद्गलस्य संहतत्वाभ्युपगमेन तस्य स्नेहोऽभ्युपगत एव, इति कथं परमाण्वोः स्नेहाभावेन
इति. यञ्चोक्तम्-'एकतः सार्धः, एकतः सार्धः' इति. एतद् अपि अचारु, परमाणोः अर्धीकरणे परमाणुत्वाभावप्रसङ्गात् . तथा यदुक्तम्-'पञ्च पुद्गलाः संहताः कर्मतया भवन्ति' तद् अपि असंगतम् , कर्मणोऽनन्तपरमाणुतया अनन्तस्कन्धरूपत्वात् , पञ्चाणुकस्य च स्कन्धमात्रत्वात्. तथा कर्म जीवावरणस्वभावमिष्यते, तच्च कथं पञ्चपरमाणुस्कन्धमात्ररूपं सद् असंख्यातप्रदेशात्मकं जीवम्-आवृणुयात् ? इति. तथा यदुक्तम्-'कर्म च शाश्वतम्' तद् अपि असमीचीनम् , कर्मणः शाश्वतत्वे क्षयोपशमाद्यभावेन ज्ञानादीनां हानेः, उत्कर्षस्य च अभावप्रसङ्गात्. दृश्यते च ज्ञानादिहानि-वृद्धी. तथा यदुक्तम्-'कर्म सदा चीयते, अपचीयते च' इति. तद् अपि एकान्तशाश्वतत्वे नोपपद्यते इति. यच्चोक्तम्-'भाषणात् पूर्व भाषा, तद्धेतुत्वात् तद् अयुक्तमेव, औपचारिकत्वात् , उपचारस्य च तत्त्वतोऽवस्तुत्वात्. किञ्च, उपचारः तात्त्विके वस्तुनि सति संभवति, इति तात्त्विकी भापा अस्तीति सिद्धम्. यच उक्तम्--'भाष्यमाणा अभापा, वर्तमानसमयस्य अव्यवहारिकत्वात्' तदपि असम्यक, वर्तमानसमयस्य एव अस्तित्वेन व्यवहाराङ्गत्यात्, अतीता-ऽनागतयोश्च विनष्टा-ऽनुत्पन्नतया असत्त्वेन व्यवहारानङ्गत्वाद् इति. यच्च उक्तम्-'भाषासमय'-इत्यादि. तदपि असाधु, भाष्यमाणभापाया अभावे 'भाषासमय'-इत्यस्य अभिलापस्य अभावप्रसङ्गात्. यच्च-'प्रतिपाद्यस्य अभिधेये प्रत्ययोत्पादकत्वात्' इति हेतुः, सोऽनैकान्तिकः-करादिचेष्टानाम्-अभिधेयप्रतिपादकत्वे सत्यपि भाषात्वाऽसिद्धेः. तथा यदुक्तम्-'अभाषकस्य भाषा' इति. तद् असंगततरम् , एवं हि सिद्धस्य, अचेतनस्य वा भाषाप्रा. प्तिप्रसङ्ग इति. एवं क्रिया अपि वर्तमानकाल एव युक्ता, तस्यैव सत्त्वादिति. यच अनभ्यासा-ऽभ्यासादिकं कारणम्-उक्तम् , तच्च अनैकान्तिकम्-अनभ्यासादौ अपि यतः काचित् सुखादिरूपा एव. तथा यदुक्तम्-'अकरणतः क्रिया दुःखा' इति. तदपि प्रतीतिबाधितम् , यतः करणकाल एव क्रिया दुःखा, सुखा वा दृश्यते. न पुनः पूर्व पश्चाद् वा, तदसत्त्वाद् इति.
२. वळी जे कयु छ के, 'बे परमाणुओ चोंटता नथी, कारण के ते सूक्ष्म छ माटे चिकाश विनाना छे.' ते पण अयुक्त छे. कारण के एक कुतीथिक प्रलाप परमाणुमां पण चिकाश होय छे. तथा ते अन्यतीर्थिकोए ज एम स्वीकार्य छ के, दोढ दोढ परमाणुओ परस्पर चोंटी जाय छे अर्थात् एम
अने तेनी
असत्यता.
१. अहीं एक ज शब्दनो ये वार उच्चार अधिकता देखाडवा को छे:-श्रीअभय.
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