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________________ शास्त्रप्रस्तावनाः अन्यनाम व्याख्याः व्यास्वाप्रज्ञप्ति. व्या० प्रज्ञाप्ति, प्रज्ञाति. विवाह ०" प्रशप्ति विशुष" प्रति मगती २ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक १. परिचयः मधिगमाय पूर्वमुनिशिल्पिकल्पितयोर्वमचरगुणलेऽपि तया महतामेव तिवस्तुसाधनसमर्थयोर्वृत्ति चूर्णिनाटिकयोः, तदन्येषां च जीवाभिगमादिविविधविवरणदवरकलेशानां संघट्टनेन बृहत्तरा अत एवाऽमहतामप्युपकारिणी हस्तिनायकादेशादिव गुरुजनवचनात् पूर्वमुनिशिल्पिकुलोत्पन्नैरस्माभिर्नाडिकेवेयं वृत्तिरारभ्यते इति शास्त्रप्रस्तावना. छे, ३. 'समवाय' नामना चतुर्थ अंगनुं व्याख्यान करवामां आव्युं. हवे अवसरप्राप्त 'विआहपण्णत्ति' नामक पंचम अंगनुं विवरण करीश. आ पंचम अंग ते एक प्रौढ जयकुंजर (मानीता हाथी भी पेठे छे, केने सतिपदनी पद्धतिथी प्रबुद्ध मनुष्योना मनने रंजन करनार छ, जे उपसर्गनिपातान्यवस्वरूप, जेना शब्दो धन अने उदार छे, जे लिंग अने विमक्तिषी युक्त हे, जे सदास्यात है, जे सहक्षणयुक्त छे, जे देवाधिष्ठित छे, 'जेनो उद्देशक सुवर्णमंडित छे, छेनुं चरित विविध प्रकार, अद्भुत अने के छे, जे छपीश हजार प्रश्नात्मक सुजदेहसहित के, जेने पार अनुयोगरूप चार चरण छे, जेने ज्ञान भने चारिषरूप नयनयुगल छे, जेने द्रव्यास्तिक अने पर्यायास्तिक नामना वे सवरूप में जेने निश्चय गर्ने व्यवहारनवरूप वे समुद्रत कुंमस्पठ के लेने योग अने क्षेमरूप ने कर्ण छे, जेने प्रस्तावनानी वचनरचनारूप प्रचंड झुंड छे, जेने निगमन- उपसंहार-वचनरूप अतुच्छ पुच्छ छें, जेने कौलादि अधप्रकारना प्रचचनोपचाररूप मनोहर तंग है, ने उत्सर्गवादरूप अने अपवादनादरूप उछळता ने अतुच्छ घंटना घोषयुक्त छे, जेणे यशरूप पटह - ढोल - जन्य स्फुट प्रतिध्वनिथी दिकूचक्रवाल - दिग्मंडल- पूरी दीधुं छे-गजावी मूक्युं छे, जे स्याद्वादरूप विशद अंकुशथी वशीकृत छे, जे विविध हेतुरूप शस्त्रसमूहथी युक्त छे, जेने श्रीमन्महावीरमहाराजे मिध्यात्व, अज्ञान अने अविरमणास्वरूप शत्रुसैन्यने नाश करवाने नियोज्यो छे अने जे सैन्यनियुक्त कल्प गणनायकनी मतिथी प्रकल्पित छे तेना स्वरूपने मुनिरूप योधाओ सुगमताथी जागी शके ए माटे पूर्वना सुनिरूप शिल्पीओए तिरूप अने चूर्णिकारूप नाटिका रखेली है; ते जो के बहुश्रेष्ठगुणयुक्त है, तथापि संक्षिप्त अने तेथी ते महान पुरुषोन्नाज बांछित अर्थने साधी आपवामां समर्थ है, माटे वृत्ति अने चूर्णिकारू नाडिकाना तथा तदन्य जीवाभिगम' आदि विविध विवरणसूत्रांशोना संघट्टनथी बृहत्तर — माटे ज अल्पज्ञोने पण उपकार करनारी नाडिका जेवी आ वृत्ति, पूर्वमुनिरूपशिल्पिना कुळमां जन्मेला अमो हस्तिनायकना आदेशतुल्य गुरुजनना वचनथी आरंभीए छीए. ए प्रमाणे शास्त्रप्रस्तावना थई. - , " , " ४. अथ 'विग्रहपत्ति' ति कः शब्दार्थः उच्यतेः 'वि' इति विविधा जीवाजीवादिप्रचुरतरपदार्थविषयाः, 'आ' अभिविधिना कथविनिलिवन्यात्या मर्यादया वा परस्पराऽसंकीर्णलक्षणाभिधानरूपया 'रुयाः ' रूपानानि भगवतो महावीरस्य गौतमादिविनेयान् प्रति प्रश्नितपदार्थप्रतिपादनानि व्याख्याः ताः प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते भगवता सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानमभि यस्याम, अथवा 'वि'विविधतया, विशेषेण या आख्यायन्त इति व्याख्या अभिलाप्यपदार्थवृत्तयः ताः प्रज्ञाप्यते यस्याम् अथवा व्याख्यानामर्थप्रतिपादनानाम् प्रकृष्टा इसयोज्ञानानि यस्यां सा व्याख्यामहप्तिः अथवा व्याख्याया अर्थकथनस्य प्रज्ञायाश्च तद्धेतुभूतबोधस्य व्याख्यासु वा प्रज्ञाया आप्तिः प्राप्तिः, अत्तिर्वाऽऽदानं यस्याः सकाशादसी व्याख्याप्रज्ञाऽऽप्तिः, व्याख्याप्रज्ञाऽऽचिर्या व्याख्याग्रहाद् वा भगवतः सकाशादातिरातिर्वा गणधरस्य यस्याः सा तथा अथवा विवाहा विविधाः, विशिष्टा या अर्थप्रवाहाः, नपप्रवाहा वा प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते, प्रबोध्यन्ते वा यस्याम् ; विवाहा वा विशिष्टसन्तानाः, विबाधा वा प्रमाणाऽबाधिताः प्रज्ञा आप्यन्ते यस्या:; विवाहा चासौ, विबाधा चासौ वा प्रज्ञप्तिवार्थप्ररूपणा विवाहप्रज्ञप्तिः, विवाहमहातिः, विवाधप्रज्ञाप्तिः, विवाधमज्ञप्तिर्वा इयं च 'भगवती' इत्यपि यत्त्वेनाभिधीयत इति , ४. इने विमापत्ति'नो शब्दार्थ शो ते वदीए डीए: विमाहपण्यति व्याख्याप्रति विविविध+मा-अवधि क्या-कथन + मशक्तिप्ररूपणा. जेम कोइ रीते अभिविधिवडे सर्व शेयपदार्थोंनी स्वाप्तिपूर्वक अथवा मर्यादायले परस्पर असंकीर्ण-विशाळ क्षणकथनपूर्वकविविध जीवाजीवादमा पदार्थों श्रीमहावीर भगवाने गौतमादिशिष्योपत्ये तेमना पृछेला पदार्थोंनां प्रतिपादनो करेला के से व्याख्याओं अने ए व्याख्या अनुं प्ररूपण श्रीमान् सुधर्मा स्वामीए जम्बूस्वामीप्रत्ये जेमां करे लुं छे ते 'व्याख्याप्रज्ञप्ति'. अथवा विविध प्रकारे, विशेषप्रकारे जे कहेवायेलुं छे ते व्याख्या - एटले के कद्देवायोग्य पदार्थोनी वृतिको अनुं जैम प्रज्ञापन ते व्याख्याप्रति अथवा व्याख्याओनां एटले अर्थप्रतिपादनाओनां मां प्रशनो अपे 'छे ते 'व्याख्याप्राप्ति' अथवा व्यापया एटले अर्थकमन, अने पशा पटले ते अर्थकथनना हेतुरूपबोधः ए उभवनी जेथी आणि प्रातपाय से व्याख्यायशास' अथवा व्याख्याओमा प्रशानी आति ने परची मळी आये ते व्याख्याज्ञाप्ति' अथवा 'आति' ने बदले 'जाति' एटले महम जेथी कई शके ते 'व्याख्याप्रज्ञाति अथवा व्याख्या (व्याख्यान करवामां कुळ) भगवान् पारोधी गणधरोने जेतुं प्रापण अथवा महण भयेडं ते 'व्याख्याप्रज्ञाप्ति', 'व्याख्याप्रज्ञात्ति.' अथवा 'विवाह' - एटले विविध के विशिष्ट अर्थप्रवाह अथवा नयप्रवाह तेनुं प्ररूपण वा प्रबोधन जेमां छे ते; अथवा 'विवाह' एटले विशिष्ट विस्तारवाळी अथवा प्रमाणथी अबाधित प्रज्ञाओ - ज्ञान - जेमांथी मळी आवे छे ते 'विवाह प्रज्ञाप्ति,' 'विबाधप्रज्ञाप्ति. अथवा 'विवाह' के 'विवा' एवी के प्रति अर्थप्ररूपण सेवाशति' आने एना पूज्यपणाने सीधे 'भगवती' ए प्रमाणे पण काय . , १. जेम 'भगवतीसूत्र' द्वादशांगी अन्तर्गत होवाथी अने द्वादशांगी शाश्वती होवाथी उपसर्गोनो - विनोनो [दुष्षम, दुष्षमदुष्षमादिसमयादिनो] निपात थये छते पण अव्यय-अनश्वरस्वरूप छे, तेम हस्ती पण उपसर्गोनो - विनोनो [दुःखद अंकुशादिनो] निपात थये छते अव्यय - अनश्वर छे. आ विशेषण 'भगवतीसूत्र' ना पक्षमां बीजा प्रकारे पण घटावी शकाय छे:- 'भगवती सूत्र' मां उपसर्गो, (प्र, परा वगेरे) निपातो अने अव्ययो आवता होवाथी ते 'भगकवीसून' उपसर्गनिपातमव्ययरूप कनाद. १ जैम 'श्रीभगवती सूत्रांना उद्देशक सुवर्णद्वारा वर्षों की मंडित के तेम तीनो उद्देश शिरोभाग-सुवर्ण - सोना थी मंडित छे--३. काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिहवन (अपलाप न करवो ते) व्यंजन, अर्थ अने तदुभय ( व्यंजन अने अर्थ ए उभय) ए आठ प्रकारनो ज्ञानाचार छे. - पंचप्रतिक्रमणसूत्र. अथवा काल, आत्मरूप, संबंध, संसर्ग, उपकार, गुणिदेश, शब्द अने अर्थ ए आठ काला कक्षा छे. - रत्नाकरावतारिका, चतुर्थ परिच्छेद - अनु०. 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SR No.004640
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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