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________________ विशेष. शरीरनी रचना. अष्कायिक. तेजस्काय वायुकाय. वनस्पति. शंका. समा० माया.. Jain Education International · १५६ श्रीरामचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १. - उद्देशक ५. अहीं पृथिवी कायिकना प्रकरणमा स्थितिस्थानद्वार साक्षात् लख्युं ज छे अने बाकीनां द्वारो नारकनी पेठे कहेवां. पण विशेष ए के, नारक अने पृथ्वीकायिक संबंधी भेद, प्रश्न अने उत्तर सूत्रथी जाणवो. ते भेद शरीरादि सात द्वारोमां छे. अने ते आ प्रमाणे छे:-"हे भगवन् ! असंख्येय लाख पृथिवीकाविकावासोमां यावत् वर्तता पृथिवीकायिकोने केलां शरीर का ? हे गौतम! तेओने पण शरीरो क. ते आप्रमाणेः भौदारिक, तैजस अने कार्मण.” ए पृथिवीकायिकोमां “क्रोधोपयुक्तो, मानोपयुक्तो" इत्यादि कहेतुं तथा “ असंख्येय लाख पृथिवीकायिकावासोमां यावत्-वर्तता पृथिवीकायिकोनां शरीरो कयां संघयणवाळां छे ?" इत्यादि पूर्व प्रमाणे ज कहेवुं. विशेष ए के, "पृथिवीकायिकोना शरीरसंघातरूपे सारां अने नरसां बन्ने प्रचारनां पुलो परिणमे छे." ए प्रमाणे संस्थानद्वारां पण क किंतु उत्तरसूत्रम "पृथिवीकाविको हुखाने संस्थित छे" एम कहे. परंतु पृथिवीका चिकना प्रकरणमां आ पाठवे प्रकारनं शरीर छे. ते आ प्रमाणेः भयचारणीय अने उत्तरवैकिय" इत्यादि न कहेयो. कारण के पृथिवीकादिकोने से मे प्रकार शरीर होतुं नथी. बळी लेश्याद्वारमां आ प्रमाणे कहेतुं "हे भगवन्! पृथिवीकारिकोने केटली लेश्याओ कही छे हे गीतम। तेओने चार श्याओ कही छे. ते आ प्रमाणेः- कृष्णलेश्या, यावत्-तेजोलेश्या." ते चारमांनी ऋण लेश्यामां अभंगक समजवुं अने तेजोलेश्यामां तो एंशी भांगा जाणवा. ए वात आगळ ज कही छे. दृष्टिद्वारमां आ प्रमाणे कहेतुंः- “ते असंख्येय लाख पृथिवीकायिकावासोमां निवास करता पृथिवीकायिको शुं सम्यग्दृष्टि छे ? मिध्यादृशि छेके मिश्र - सम्यरमिध्यादृष्टि से गौतम! तेओ चोकस मिध्यादृष्टि छे." बाकी वधुं तेज प्रकारे जाणतुं ज्ञानद्वारां पण ते जज विशेष एके, "हे भगवन् पृथिवीकाविको शानी के के अज्ञानी हे हे गौतम! तेओ ज्ञानी नवी, पण अज्ञानी छे अने तेओने ने अज्ञान होय छे. योगद्वारां पण तेमज समविशेष के 'हे भगवन्! पृथिवीवाको मनोयोगी के वचनयोगी है, के काययोगी छे रहे गौतम! ते मनोयोगी के वचनयोगी नभी, पण कावयोगी छे. [एवं उमायाविति पृथिवीकायिकनी पेठे अकायिको पण जागया. ते अकायिको दशे स्थानोमां अभंगक होय छे अने तेजोलेश्यामां तेज संबंधे एंशी भांगा थाय छे. कारण के, अण्डाविकां पण देव उत्पन्न या छे. [ 'सेकाइया'] इत्यादिमां [ 'सव्वे ठाणेसु [] स्थितिस्थानादिक दशे स्थानोमां अभंगक जाग. कारण के, तेमां कोघादियां उपयुक्त जीवो एक ज काळे पणा होय छे. अही देवो उत्पन्न यता नयी माटे तेजोलेश्या नथी. अने सेम होवाची तेजोलेश्याने लहने घता एंशी भांगाओ पण नथी, पण अभंग ज छे. ते संबंधी सूत्रो पृथिवीकायिकनां सुणोनी पेठे कयां. मात्र यायुकायसंबंधी सूत्रोमा शरीरद्वारमां आ प्रमाणे विशेष जाणः - "हे भगवन्! असंस्थेव लाख वायुकायिकावासीमां वर्तता वायुकापिकोने केलां शरीर छे? हे गौतम! तेओने चार शरीर कां छे. ते आ प्रमाणे:--औदारिक, बैकिय, तैजस अने कार्मण." [ अणरसइकाइया' इत्यादि.] वनस्पतिकायिको पृथिवीकावियोगी पेठे ज जायचा. कारण के, तेओना दशे स्थानो अभंग छे. अने तेजोलेश्यामां तेज प्रकारे एंशी भांगा थाय छे. शं०–दृष्टिद्वारमां पृथिवीकायिको, अप्कायिको अने वनस्पतिकायिको सम्यक्त्वी कहेवा जोइए. कारण के कर्मग्रंथोमां ए त्रणेने सास्वादनभावे सम्यक्त्व होय छे एम स्वीकायुं छे. अने ज्यारे ए मत प्रमाणे ए त्रणे सम्यक्त्वी थाय त्यारे ज ज्ञान द्वारमां तेओने (त्रणेने ) ज्ञानी कहेवा जोइए अर्थात् मतिज्ञानी अने श्रुतज्ञानी कहेवा जोइए. अने मतिज्ञानी तथा श्रुतज्ञानी तेओ (त्रणे ) थोडा होय छे माटे सम्यग्दृष्टि, आभिनिबोधिक-मति - ज्ञान अने श्रुतज्ञानमां माटे एंशी भांगा थवा जोइए. ते केम नथी कला ? समा०- ए शंका ठीक नथी. कारण के, पृथिव्यादिक ऋणमां सास्वादनभाव घणो ज थोडो छे. माटे तेने अहीं गण्यो नथी. ते माटे ज कयुं छे के :- “ पृथिवीवगेरेमां उभयाभाव - उभयनो अभाव - छे. अने विकलेंद्रियोमां पूर्वोपपन्नक होय छे" उभवाभाव एटले प्रतिपद्यमान के पूर्वप्रतिपन ए बन्ने सम्यक्त्यनो अभाव जागवो. अर्थात् पृथिवीकापिकादियां वर्ततो कोइ जीव सम्यक्त्व पामतो नथी तथा पूर्वे पामेल सम्यक्त्वने साथे लावतो नथी अने विकलेंद्रियोमां वर्ततो जीव पूर्वे पामेल सम्यक्त्वने साधे लावे छे माटे पूर्वोपपद्मक काय . ए १९३ . - बेइंदिये - ते इंदिय - चउरिंदियाणं जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं असीभंगा तेहिं ठाणेहिं असीइं चेव नवरं - अब्भहिया सम्मते, आभिणियोहियनाणे, सुवनाने व एएहिं असीहमंगा. जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं सत्तावीसं भंगा तेसु ठाणेसु सव्वेसु अभंगयं. दि १९३. जे स्थानोवडे नैरयिकोने एंशी भांगा छे ते स्थानोवडे बेइंद्रिय, त्रींद्रिय, अने चउरिंद्रिय जीवोने पण एंशी भांगा छे. विशेष एके नीचे लखेडा प्रण स्थानमांपण ते ( बेइंद्रियादि) जीयोने एंशी भांगा थाय छे, ते त्रण स्थानो आ छे:- सम्यक्त्व, आभिनिबोधिक ज्ञान अने श्रुतज्ञान अर्थात् आ ण स्थानोनां पण बेद्रियादि जीवोने ऐशी भांगा खाने के अने एट नैरनेको करता वधारे है. तथा जे स्थानोवढे नैरथिकोन सतायात मांगा है से बधाय पण स्थानोमां अही अभंगरू छे. ११. 'बेइंदिय' इत्यादावेवमक्षरघटना - 'जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं असीइभंगा तेहि ठाणेहिं बेइंदिय - तेइंदिय - चउरिंदियाणं असीइं चेव' त्ति तत्रैकादिसंख्यातान्तसमयाधिकायां जघन्यस्थितौ तथा जघन्यायामवगाहनायां च तत्रैव च संख्येयान्तप्रदेशवृद्धायाम्, मिथ्यादृष्टौ च नारकाणामशीतिर्भङ्गका उक्ताः, विकलेन्द्रियाणामप्येतेषु स्थानेषु मिश्रदृष्टिवर्जेष्वशीतिरेव. अल्पत्वात् तेपाम् एकैकस्यापि क्रोधाद्युपयुक्तस्य संभवात्. मिश्रदृष्टिस्तु विकलेन्द्रियेषु, एकेन्द्रियेषु च न भवतीति न विकलेन्द्रियाणां तत्राशीतिभङ्गकसंभव इति वृद्धैस्तु-इह सूत्रे कुतोऽपि १. आ वात मूळमां नथी. पण तेने पूर्वसूत्रधी अहीं जाणवी :-श्री अभयदेव. १. मुलच्छायाद्रियन्द्रयरिन्द्रियाणां स्थानराणाम् अशीविनंती स्थानैरशीतिशेव नगरम् अभ्यधिकः सम्यावे, आमिनिबोधिकज्ञाने, श्रुतज्ञाने च एतैरशीतिर्भङ्गाः यैः स्थानैनैरयिकाणां सप्तविंशतिर्भङ्गास्तेषु स्थानेषु सर्वेषु अभङ्गकम्ः - अनु० For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004640
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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