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शतक १.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
१२७ १०. तेषु च एवं शङ्कादयः स्युः-यदि नाम परमाण्वादिसकलरूपिद्रव्यावसानविषयग्राहिकत्वेन संख्यातीतरूपाण्यवधिज्ञानानि सन्ति, तत् किमपरेण मनःपर्यायज्ञानेन? तद्विषयभूतानां मनोद्रव्याणामवधिनैव दृष्टत्वात्, उच्यते चाऽऽगमे मनःपर्यायज्ञानमिति किमत्र तत्त्वम् । इति ज्ञानतः शडा. इह समाधिः-यद्यपि मनोविषयमप्यवधिज्ञानमस्ति, तथापि न मनःपर्यायज्ञानमवधावन्तर्भवति, भिन्नस्वभावत्वात्. तथाहिः-मनःपर्यायज्ञानं मनोमात्रद्रव्यग्राहकमेवाऽदर्शनपूर्वकं च, अवधिज्ञानं तु किंचिद्मनोद्रव्यव्यतिरिक्तद्रव्यग्राहकम् , किश्चिच्चोभयग्राहकम् , दर्शनपूर्वकं च, नतु केवलमनोद्रव्यग्राहकमित्यादि बहु वक्तव्यम् , अतोऽवधिज्ञानाऽतिरिक्तं भवति मनःपर्यायज्ञानमिति. तथा दर्शनं सामान्यबोधः, तत्र यदि नामेन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तः सामान्यार्थविषयो बोधो दर्शनम् , तदा किमेकश्चक्षुर्दर्शनम् अन्यस्त्वचक्षुर्दर्शनम् ! अथेन्द्रियाऽनिन्द्रियभेदाद् भेदः, तदा चक्षुष इव श्रोत्रादीनामपि दर्शनभावात् षड् इन्द्रियनोइन्द्रियजानि दर्शनानि स्युः, न द्वे एवेति. अत्र समाधिःसामान्यविशेषात्मकत्वाद् वस्तुनः कचिद्विशेषतः तन्निर्देशः, कचिच्च सामान्यतः. तत्र चक्षुर्दर्शनमिति विशेषतः, अचक्षुर्दर्शनमिति च सामान्यतः. यच्च प्रकारान्तरेणापि निर्देशस्य संभवे चक्षुर्दर्शनम्-अचक्षुर्दर्शनं चेत्युक्तं तद् इन्द्रियाणामप्राप्तकारित्व प्राप्तकारित्वविभागात्, मनसस्तु अप्राप्तकारित्वेऽपि प्राप्तकारीन्द्रियवर्गस्य तदनुसरणीयस्य बहुत्वात् तदर्शनस्याऽचक्षुर्दर्शनशब्देन ग्रहणमिति. अथवा दर्शनं सम्यक्त्वम् , तत्र शङ्का-“मिच्छेत्तं जमुदिन्नं तं खीणं, अणुदियं च उवसंतं" इत्येवंलक्षणं क्षायोपशमिकम्. औपशमिकमप्येवंलक्षणमेव, यदाहः-खीणम्मि उइन्नम्मि अणुदिज्जते य सेसमिच्छत्ते, अंतोमुहुत्तमेत्तं उवसमसम्मं लहइ जीवो.” ततोऽनयोर्न विशेषः, उक्तश्चासौ इति. समाधिश्च-क्षयोपशमो हि उदीर्णस्य क्षयः, अनुदीर्णस्य च विपाकानुभवापेक्षया उपशमः, प्रदेशानुभवतस्तूदयोऽस्त्येव, उपशमे तु प्रदेशानुभवोऽपि नास्तीति. उक्तं च-"वेएई संतकम्मं खओवसमिएसु नाणुभावं सो, उवसंतकसाओ पुण वेएइ ण संतकम्म"ति.
१०. तेओ विषे शंकादिक आ प्रमाणे छे:-शंकाः- अवधिज्ञानथी मनःपर्यायज्ञानने जूहूँ कहेवानुं शुं कारण ? कारण के परमाणुथी मांडी बघां अवधियी मनःपर्याय - रूपवाळां द्रव्यो सुधीना विषयोने ग्रहण करनारुं अवधिज्ञान छे माटे ते (अवधिज्ञान) असंख्य प्रकारनुं छे. अने मनःपर्यायज्ञाननो विषय मात्र मनो- जूद शा माटे ? द्रव्यो ज छे. ते मनोद्रव्यो अवधिज्ञानवडे पण जोवाइ शकाय छे माटे मनोद्रव्योने जाणनारुं अवधिज्ञानथी जूदं मनःपर्याय ज्ञान होवानुं कारण नथी. तो पण शास्त्रोमां जूदं मनःपर्याय ज्ञान शा माटे कयुं अर्थात् तेने जूहूँ कहेवामा तत्त्व शुं छे? ए प्रमाणे ज्ञानांतर विषे शंका छे. स०-जो के अवधि- जूदी जातनुं छे माटे. ज्ञानवडे मनोद्रव्यो पण उपलब्ध थइ शके छे. तो पण मनःपर्यायज्ञान अवधिज्ञानना भेदोमां समाइ शकतुं नथी. कारण के अवधि अने मनःपर्यायज्ञाननो जूदो जूदो खभाव छे. तेओनो भिन्न स्वभाव आ रीतिए छः मनःपर्यायज्ञान मात्र मनोद्रव्योर्नु ज ग्राहक छे अने ते ज्ञानमा प्रथम दर्शन तेओनी जूदाद, (सामान्य ज्ञान) होतुं नथी अने केटलुक अवधिज्ञान मन सिवायना द्रव्योनुं ग्राहक छे तथा केटलुक अवधिज्ञान मनने अने बीजा द्रव्योने पण ग्रहण करनारुं होय छे तथा अवधिज्ञानमां सौथी प्रथम दर्शन होय छे, पण कोइ अवधिज्ञान एवं नथी के जे मात्र मनोद्रव्यनु ज ग्राहक होय. इत्यादि आ संबंधे धणुं कहेबानुं छे. तात्पर्य ए छे के, पूर्व प्रमाणे अवधिज्ञान अने मनःपर्याय ज्ञानना स्वभावमा जूदाइ छ माटे मनःपर्यायज्ञान अवधिज्ञान करतां जूदूं कहेवू जोइए. दर्शन विषे शंकाः-तथा दर्शन एटले सामान्यज्ञान, तेमां जो इंद्रियनिमित्तक अने अनिंद्रिय (मनो) निमित्तक सामान्य अर्थविषयक दर्शन विषे शंका. ज्ञानने दर्शन कहेवामां आवे तो एक चक्षुर्दर्शन अने बीजुअचक्षुदर्शन एम बे भेद जशा माटे होइ शके ? जो इंद्रियजन्य अने अनिद्रियजन्य ए प्रकारे दर्शनना भेद करवाना होय तो चक्षुर्दर्शननी पेठे श्रोत्रदर्शन, घाणदर्शन, रसनादर्शन, स्पर्शदर्शन अने मनोदर्शन ए प्रकारे दर्शनना छ भेद थवा जोइए, पण बे भेद न ज थवा जोइए. स०-वस्तुना बे प्रकार छे-सामान्य अने विशेष, माटे कोइ स्थळे सामान्यप्रकारे वस्तुनो निर्देश थाय छे अने कोइ स्थळे विशेष समाधान. प्रकारे वस्तुनो निर्देश थाय छे. तेमां अहीं 'चक्षुर्दर्शन' ए निर्देश विशेषता पूर्वक छे अने 'अचक्षुर्दर्शन' ए निर्देश सामान्य प्रकारे छे. वळी दर्शनना विभाग बीजी रीतिए पण कही शकाय छे. तो पण जे 'चक्षुर्दर्शन अने अचक्षुर्दर्शन' ए प्रकारे दर्शनना भेद कर्या छे तेमां कारणरूपे इंद्रियोना बे विभाग छे. ते आ छे:-प्राप्यकारी अने अप्राप्यकारी. जो के मन तो अप्राप्यकारी छे तो पण मनने अनुसरनारी प्राप्यकारी इंद्रियो घणी छे, माटे मनोदर्शन अने आंख सिवायनी बीजी दरेक इंद्रियोनुं दर्शन अचक्षुदर्शन शब्दथी लेवाय छे अने आंखनुं दर्शन चक्षुर्दर्शन शब्दथी समजवानुं छे. अथवा दर्शन एटले 'सम्यक्त्व' ले. अने ते विषे शंका आ प्रमाणे छः-दर्शनना बे विभाग छ-क्षायोपशमिक अने औपशमिक. तेमां क्षायोपशमिकनुं दर्शन-सम्यक्त्व. खरूप आ छ:-"उदीर्ण थएडं मिथ्यात्व क्षीण थयुं होय अने अनुदीर्ण मिथ्यात्व उपशांत-टाढं पडी गएलु-होय" त्यारे क्षायोपशमिक दर्शन-सम्यक्त्वहोइ शके छे. औपशमिकनुं स्वरूप आ छ:-"उदीर्ण थएवं मिथ्यात्व क्षीण थयु होय, अने बाकी मिथ्यात्व अनुदीर्ण होय त्यारे मात्र अंतर्मुहूर्त सुधी जीव औपशमिक सम्यक्त्वने पामे छे" हवे क्षायोपशमिक दर्शननु अने औपशमिक दर्शन- लक्षण जोतां तो ते बेमां जरापण तफावत भासतो नथी अने ते बन्नेमां तफावत तो कह्यो छे. तेनुं शुं कारण ? समाः-क्षयोपशम अने उपशमनुं लक्षण जूटुंज छे. उदीर्णनो क्षय अने अनुदीर्णनो विपाकानु- क्षयोपशम अने उपभवनी अपेक्षाए उपशम होय पण प्रदेशानुभवनी अपेक्षाए तो उदय ज होय तेने 'क्षयोपशम' कहे छे. अने उपशममां तो प्रदेशानुभव ज नथी अर्थात् शमनी जूदाइ. क्षयोपशममा प्रदेशानुभव होय छे अने उपशममा ते नथी होतो ए रीतिए ए बेमा तफावत छे. कप छे के:-"क्षायोपशमिक भावमा विपाक-अनुभावसिवाय सत्-विद्यमान-कर्म वेदाय छ अर्थात् विपाकानुभवपूर्वक वेदातुं नथी अने उपशांतकषायवाळो जीव तो सत् कमने पण वेदतो नथी."
१. प्र. छा:-मिथ्यात्वं यद् उदीर्ण तत् क्षीणम् , अनुदितं चोपशान्तम्. २. क्षीणे उदीर्णे अनुदीयमाने च शेषमिथ्यात्वे, अन्तर्मुहूर्तमात्रमुपशमसम्यग् लभते जीवः. ३. वेदयति सत्कर्म क्षायोपशमिकेषु नानुभावं सः,उपशान्तकषायः पुनर्वेदयति न सत्कर्मः-अनु.
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