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शतक १.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
११७ निश्चितम् . एवं मणं धारेमाणे त्ति 'तदेव सत्यम् , निःशकं यजिनैः प्रवेदितम्' इत्यनेन प्रकारेण मनो मानसमुत्पन्नं सद् धारयन् स्थिरीकर्वन, 'एवं पकरेमाणे ति उक्तरूपेणाऽनुत्पन्नं सत् प्रकुर्वन् विदधानः, 'एवं चिद्वेमाणे'त्ति उक्तन्यायेन मनश्चेष्टयन्-'नान्यमतानि सत्यानि इत्यादिचिन्तायां व्यापारयन् , चेष्टमानो वा विधेयेषु तपोध्यानादिषु, 'एवं संवरेमाणे ति उक्तवदेव मनः संवृण्वन-मतान्तरेभ्यो निवर्तयन प्राणातिपातादीन वा प्रत्याचक्षाणो 'जीव' इति गम्यते. 'आणाए'त्ति आज्ञायाः-ज्ञानाद्यासेवारूपजिनोपदेशस्य. 'आराहए'त्ति आराधकः पालयिता भवति इति.
३. आगळना प्रकरणमा 'जीवो कांक्षामोहनीय कर्मने वेदे छे' एम कर्दा छे. हवे ते कर्मर्नु वेदन करवामां कया कया कारणो छे ए वातने जणावया कांक्षामोहनीयना प्रस्तावनापूर्वक कहे छे के:-['जीवा णं भंते !' इत्यादि] ए सूत्र स्पष्ट छे. जे विशेष छे ते आ छे-शंका:-'जीवो कांक्षामोहनीय कर्मने वेदे छ' ए वेदनहुँ कारण, वातनो निर्णय पूर्वना प्रकरणमा थइ चूक्यो छे, तो पण शा माटे फरीथी प्रश्न कर्यो छे ? समाधानः-वेदनना कारणोनुं प्रतिपादन करवा आ प्रश्न कों छे. कयुं छे के:-"जे वात पूर्वे एकवार कहेवाइ जाय अने ते ज वातने जो फरीथी शास्त्रकार कहे, तो तेमां कांइ कारण होवू जोइए एम समजवू. एकवार कहेवाएल वातने फरीथी कहेवानां नीचेनां कारणो छेः-प्रतिषेध, अनुज्ञा अने एक प्रकारना हेतुनुं कथन अर्थात् पूर्वनी वातने प्रतिषेधवा, एक ज वातने फरीथी पूर्वनी वातमा अनुमति आपवा के पूर्वनी वातना निर्णयमा कोइ विशेष हेतुने कहेवा एकवार कहेल वात फरीथी कहेवामां आवे छे." तेहि तेहि कडेवार्नु कारण, ति] 'बीजा दर्शन- सांभळ' 'कुतीर्थिकनो संसर्ग करवो' इत्यादि विद्वत्प्रसिद्ध कारणोवडे-शंकादि हेतुओवडे, ए हेतुओथी शुं? तो कहे छे के, ए हेतुओथी शंकित थएला अर्थात् श्रीजिने कहेल पदार्थों संबंधे सर्वथा के थोडे भागे संशयने पामेला. कांक्षित थएला-अन्य अन्य दर्शनने ग्रहणं करनारा-'वितिगिंछिअत्ति] फल संबंधे शंका पामेला, भेदने पामेला अर्थात् शुंआ जिनशासन छे, के आ जिनशासन छ ? ए प्रमाणे जिनशासनना खरूपमा जेओनी बुद्धि भेदने पामेली छे तेओ. अथवा अनिश्चयरूप मतिभंगने पामेला. अथवा पूर्वोक्त शंकितादि विशेषणवाळा छ माटे ज जेओनी बुद्धि द्विधा भावने पामेली छे एवा. कलुषसमापन्न-कलुषने पामेल अर्थात् 'ए एम नथी' ए प्रमाणे विपरीत बुद्धिने पामेला. ['एवं खलु' इत्यादि] ए प्रकारे जीवो कांक्षामोहनीय कर्मने वेदे छे, एम जाणवं. कारण के एम श्रीजिने जणाव्युं छे. अने ते सत्य छे. हवे तेनी साचाइने दाववा कहे छे के:-['से णूणं' इत्यादि] ए सूत्र स्पष्ट छे. विशेष ए के, जे जिने कहेलं होय ते ज सत्य छे. पण बीजा पुरुषोए जणावेलुं होय ते सत्य होतुं नथी. कारण के जिन सिवायना बीजा पुरुषो रागादिथी उपहत थएला होवाथी तेओए जणावेलामा असत्यपणुं संभवे छे. केटलीक साची वातो एवी होय छे के, जे वातो मात्र व्यवहारथी-उपर उपरथी-साची होय पण वास्तविक साची न होय. माटे कहे छे के, जे जिने कहेलं छे ते निःशंक छे संदेह विनानुं छे. हवे भगवंतनी जणावेल बातने साची माननार केवो होय ते संबंधे कहे छे केः-['से णूणं' इत्यादि] ए सूत्र स्पष्ट छे. विशेष ए के, [ 'एवं मणं धारेमाणे'त्ति] जिनोए जे कयुं छे ते ज निःशंक छे ए प्रमाणे मानी मनने स्थिर करतो. [ 'एवं पकरेमाणे'त्ति ] उक्तरूपे मन न होय तो पण तेरूपे करतो. ['एवं चिट्ठमाणे 'त्ति पूर्वोक्त प्रमाणे मननी चेष्टा करतो, 'बीजां मतो सत्य नथी' इत्यादि चिंतामा मननो व्यापार करतो, अथवा तप तथा ध्यानादिमां मननी चेष्टा करतो ['एवं संवरेमाणे ति] ए प्रमाणे मनने रोकतो-बीजां मतोथी मनने पाछु वाळतो, अथवा प्राणातिपात-हिंसा-वगेरेथी मनने अटकावतो जीव ['आणाए'त्ति ] जिनोपदेश-जिने कहेल ज्ञानादिनी आसेवारूप आज्ञा-नो ['आराहए'त्ति] आराधक थाय छे.
अस्तित्व अने नास्तित्व.
१२१. प्र०-से णणं भंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, १२१. प्र०-हे भगवन् ! अस्तित्व अस्तित्वमा परिणमे छे, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ ?
नास्तित्व नास्तित्वमा परिणमे छे! १२१. उ०—हंता, गोयमा! जाव-परिणमइ.
१२१. उ०-हे गौतम ! हा, ते प्रमाणे यावत्-परिणमे छे. १२२. प्र०-जं तं भंते ! अत्थितं अत्थित्ते परिणमइ, १२२. प्र०-हे भगवन् ! जे ते अस्तित्व अस्तित्वमा परिनत्थित्तं नस्थित्ते परिणमइ; तं किं पओगसा, वीससा ? णमे छे अने नास्तित्व नास्तित्वमा परिणमे छे, ते शुं प्रयोगथी
जीवना व्यापारथी-परिणमे छे के स्वभावथी परिणमे छे ? १२२. उ०—गोयमा! पओगसा वि तं, वीससा वि तं. १२२. उ०—हे गौतम! ते प्रयोगथी अने स्वभावथी
(बन्ने प्रकारे ) परिणमे छे. १२३. प्र०-जहा ते भंते ! अत्थित्तं आत्थित्ते परिणमइ, १२३.प्र०—हे भगवन् ! जेम तारुं अस्तित्व अस्तित्वमा तहा ते नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ ? जहा ते नात्थत्तं नत्थित्ते परिणमे छे तेम तारुं नास्तित्व नास्तित्वमा परिणमे छे ! अने जेम परिणमइ, तहा ते अत्थित्तं अस्थित्ते परिणमइ ?
तारं नास्तित्व नास्तित्वमा परिणमे छे तेम तारुं अस्तित्व अस्तित्वमा परिणमे छे?
१. आ वेवडं उच्चारण वीप्सानु सूचक छे. २. 'खलु' शब्द वाक्यालंकारनो, निश्चयनो के अवधारणनो सूचक छेः-श्रीअभय.
१. मूलच्छायाः-तद् नूनं भगवन् ! अस्तिलम् अस्तित्वे परिणमति, नास्तित्वं नास्तित्वे परिणमति ? हन्त, गौतम । यावत्-परिणमति- यत् तद् भगवन् । अस्तित्वम् अस्तित्वे परिणमति, नास्तित्वं नास्तित्वे परिणमति, तत् किं प्रयोगेण, विक्षसया ? गौतम ! प्रयोगेणाऽपि तत्, विस्रसयाऽपि तत्.यथा ते भगवन्। अस्तित्वम् अस्तित्वे परिणमति, तथा ते नास्तित्वं नास्तित्वे परिणमति यथा ते नास्तित्वं नास्तित्वे परिणामति तशा ने अमिनमा अमित ने परिणाम नि?:-अन.
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