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________________ शतक १.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. नपान दृढ़ च वस्तुनः करणे चतुर्भङ्गी दृष्टा, यथा-देशेन हस्तादिना वस्तुनो देशस्याऽऽच्छादनं करोति. अथवा हस्तादिदेशेनैव समस्तस्य वस्तुनः. अथवा सर्वात्मना वस्तुदेशस्य. अथवा सर्वात्मना सर्वस्य वस्तुन इति. एतां काङ्क्षामोहनीयकरणं प्रति प्रश्नयन्नाहः से भंते इत्यादि. 'से'त्ति तस्य कर्मणः, हे भदन्त ! किमिति प्रश्ने. देशेन जीवस्यांऽशेन, देशः काङ्क्षामोहनीयस्य कर्मणोंऽशः कृत दत्यको भनः अथ देशेन जीवांशेनैव, सर्वकाङ्क्षामोहनीयं कृतमिति द्वितीयः, उत सर्वेण सर्वात्मना, देशः काङक्षामोहनीयस्य कृत इति ततीयः, उताहो सर्वेण सर्वात्मना, सर्वं कृतमिति चतुर्थः, अत्रोत्तरम्-'सव्वेणं सब्वे कडे'त्ति जीवस्वाभाव्यात, सर्ववप्रदेशाऽवगाढतदेकसमयबन्धनीयकर्मपुद्गलबन्धने सर्वजीवप्रदेशानां व्यापार इत्यत उच्यते-सर्वात्मना सर्वं तदेककालकरणीयं काक्षामोहनीयं कर्म कृतम्-कर्म तया बद्धम्, अत एव च भङ्गत्रयप्रतिषेध इति. अत एवोक्तम्:-"एंगपएसोगाढं सव्वपएसेहिं कम्मुणो जोग्गं, बंधइ जहत्तहेति . 'एगपएसोगाढं'ति जीवाऽपेक्षया, कर्मद्रव्यापेक्षया च ये एके प्रदेशाः तेष्क्वगाढम् , सर्वजीवप्रदेशव्यापारत्वाच्च तदेकसमयबन्धनार्ह सर्वमिति गम्यम्, अथवा सर्वे यत्किश्चित् काङ्क्षामोहनीयं तत् सर्वात्मना कृतम्, न देशेनेति. . १. बीजा उद्देशकना छेलां सूत्रोमा एक प्रकारना आयुष्यनुं प्ररूपण कर्यु छे. ज्यारे मोहरूप दोषनी हयाती होय त्यारे ज जीवने ते आयुष्य संभवी शके छ माटे हवे आयुष्यना निरूपण पछी एक प्रकारना मोहनीय कर्मने निरूपता अने प्रथम शतकनी शरुआतमा जणावेल संग्रहगाथामां जे [ 'कंखपओस'त्ति] ए पद कहुं छे तेने दर्शावता कहे छे के:-['जीवाणं' इत्यादि. ] ए बधु स्पष्ट छे. विशेष ए के, जीवो संबंधी जे कांक्षामोहनीय कर्म छे ते कांक्षामोहनीय कर्म किडेत्ति] कृत-करेल-क्रियानिष्पाद्य-छे ? एम प्रश्न छे. तेनो उत्तर आ छेः-['हंता, कडे'त्ति] हा, कृत छे. कारण के जो कृत-करेल-न होय तो ते 'कर्म' जीवकृत छ ? कही शकाय नहीं. जे कराय ते ज कर्म कहेवाय अने 'कांक्षामोहनीय' पण कराय छे माटे कर्म कहेवाय छे. जे मोह पमाडे-मुंझवे-ते मोहनीय. शंका:-'मोहनीय' एटलं ज मूक्यु होत अने तेनी साथे 'कांक्षा' ए पद न जोड्युं होत तो शुं दूषण छे? समाधानः-मोहनीय कर्मना बे प्रकार छे-एक शंका, समाधान. चारित्रमोहनीय अने बीजु दर्शनमोहनीय. आ स्थळे 'दर्शनमोहनीय' कर्म ज अपेक्षित छे माटे तेने लेवा माटे 'मोहनीय' पद साथे 'कांक्षा' पद जोत्यं छे. 'कांक्षामोहनीय' शब्दनो अर्थ आ छे:-कांक्षा एटले वीजा वीजा दर्शनो मतो-नुं ग्रहण करवू अर्थात् अमुकमां ज श्रद्धा न राखतां भिन्न कांक्षामोदनीय. भिन्न मतोने अवलंबई. तद्रूप-कांक्षारूप-जे मोहनीय-मोह पमाडनारु-ते कांक्षामोहनीय-मिथ्यात्व मोहनीय. ते कांक्षामोहनीय कर्म कृत-कराएल छे. क्रिया करवानी पद्धति लोकमां चार प्रकारे प्रसिद्ध छे. ते चार प्रकार आ छे:-जेम के कोइ मनुष्य कोइ पण वस्तुने ढांकतो (ढांकवानी क्रिया करवानी रीतना करतो) होय तो ते. ते वस्तुने चार रीतिए ढांकी शके छे. पोताना शरीरना कोइ पण हाथ वगेरे भागवडे ते वस्तुना कोइ पण भागने ढांके छे. १. चार प्रकार. शरीरना कोइ पण भागवडे आखी वस्तुने ढांके छे. २. आखा शरीरवडे वस्तुना कोइ पण भागने ढांके छे. ३. अने आखा शरीरवडे आखी वस्तुने ढांके छे. ४. अर्थात् १. अवयवथी अवयवनी क्रिया. २. अवयवथी आखानी क्रिया. ३. आखाथी अवयवनी क्रिया. ४. आखाथी आखानी क्रिया. पूर्व प्रमाणे दर्शावेल क्रिया करवानी चार पद्धतिओमांथी कइ पद्धतिवडे आत्मा कर्मने करे छे ए विषे प्रश्न पूछता कहे छे के:-[ से भंते !' इत्यादि] हे भगवन् ! शुं जीव पोताना कोइ पण भागवडे कांक्षामोहनीय कर्मनो कोइ एक भाग करे छे ? (१) शुं जीव पोताना कोइ पण भागवडे आलुं कांक्षामोहनीय कर्म करे छे । (२) शुं जीव पोते आखो ज (पोताना समस्त भागोवडे) कांक्षामोहनीय कर्मना कोइ एक भागने करे छे ? (३) के शुं जीव पोते आखो ज आङ्खु कांक्षामोहनीय कर्म करे छे ? (४). आनो उत्तर आ छे:-['सव्वेणं सब्वे कडे'त्ति] आखो जीव पोते ज आखा कांक्षामोहनीय एक प्रकार नो कर्मने करे छ अर्थात् क्रिया करवाना पूर्वोक्त चार प्रकारमाथी मात्र अहीं छेलो-चोथो प्रकार-जइष्ट छे. जे स्थळे जीवना बधा प्रदेशो अवगाढ छे ते स्थळे रहेला अने एक समये बांधवा योग्य जे कर्मपुद्गलो होय तेने ते बधायने-बांधवामा जीवना बधा प्रदेशो क्रिया करे छे. कारण के एवा प्रकारनो जीवनो स्वभाव छे. तेथी ज अहीं बाकीना त्रण प्रकारने निषेधी क्रिया करवानो चोथो प्रकार स्वीकार्यो छे अर्थात् आखा जीवे पोते एक काळे बांधी शकाय तेवू (आखं) कांक्षामोहनीय कर्म बांध्यु छे. ते माटे ज कयुं छे के:-"एक प्रदेशमा अवगाढ अने कर्मने योग्य पुद्गलने जीव पोताना सर्व प्रदेशोवडे यथोक्त हेतुपूर्वक बांधे छे." ['एगपएसोगाढं'ति ] 'एक प्रदेशमा अवगाढ' एटले जीवद्रव्यनी अपेक्षाए तथा कर्मद्रव्यनी अपेक्षाए जे एक -समान-प्रदेशो, तेमां अवगाढ ते 'एक प्रदेशमा अवगाढ.' कर्मने बांधवामा जीवना बधा प्रदेशो क्रिया करे छे माटे तेनाथी (जीवथी) एक समये बांधी शकाय तेवू बधुं कर्म (ते बांधे छे.) अथवा जे काइ कांक्षामोहनीय कर्म छे ते बधु आखा जीववडे ज करायुं छे पण तेना कोइ एक भागवडे ते (कर्म) कराएल नथी. २. 'जीवानाम् ' इति सामान्योक्तौ विशेषो नावगम्यते, इति विशेषावगमाय नारकादिदण्डकेन प्रश्नयन्नाहः-'नेरइयाणं' इत्यादि भावितार्थमेव. क्रियानिष्पाद्य कर्मोक्तम् , तक्रिया च त्रिकालविषया, अतस्तां दर्शयन्नाहः-'जीवा ण' इत्यादि व्यक्तम्. नवरम्-'करिंसुत्ति अतीतकाले कृतवन्तः ? उत्तरं तु हन्ताऽकार्युः, तदकरणे अनादिसंसाराभावप्रसङ्गात्. एवम्-'करेंति' संप्रति कुर्वन्ति. एवम्-'करिस्संति' अनेन च भविष्यत्काटता करणस्य दर्शिता इति. कृतस्य च कर्मणश्चयादयो भवन्ति, इति तान् दर्शयन्नाहः-'एवं चिए' इत्यादि व्यक्तम्. १. चतुर्भतीम. २. प्र. छायाः-एकप्रदेशाऽवगाढं सर्वप्रदेशैः कर्मणो योग्यम् , बभ्राति यथोक्तहेतुम्:-अनु. १. जूओ पृष्ठ ८ मुंः-अनु० For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004640
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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