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आत्माके स्वरूपोको आवृत्त करते हैं, विकृत करते हैं और शुभाशुभ फलके कारण बनते है ये आत्मगृहीत पुद्गल ही कर्म कहलाते हैं। यद्यपि ये पुद्गल एकरूप हैं तो भी ये द्रव्यकर्म निमित है और द्रव्यकर्म के होनेमें भावकर्म निमित्त है, इन दोनों का आपसमें बीजांकुर की तरह कार्य भाव संबंध है। (संक्षेपमें क्रोध, मान, माया, लोभ ये कषाय अथवा राग, द्वेष एवं मोह भावकर्म है क्योंकि कर्मों का बंधन दृढ होता है और इनके निमित्त से कर्म पुद्गलों का आत्मा के सान्निध्यमें आकर नीर-क्षीर एकीभूत हो जाना द्रव्यकर्म है ।)
इसी प्रकास कषाय और योग से ( अर्थात् जीव की कायिक, वाचिक और मानसिक क्रिया) आत्माके साथ कर्म परमाणुओं का बंध होता हैं। जीवके असंख्य प्रवेश है। मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्तसे जीवके असंख्य प्रदेशोंमें कंपन पैदा होता है। इस कंपन के फलस्वरूप जिस क्षेत्रमें आत्मप्रदेश हैं उस क्षेत्रमें विद्यमान अनंतानंत कर्म-योग पद्गल जीवके एक - एक प्रदेशके साथ चिपक जाते हैं, बंध जाते हैं। जीव प्रदेशों के साथ इन कर्म पुद्गलोंका इस प्रकार बंध जाना ही बंध कहलाता है। जैन सिद्धांत में कर्मोंकी मुख्य दस अवस्थाएँ बताई है। बंध, उदवर्तन, अपवर्तन, सत्ता, उदय, उदीरणा, संक्रमण, उपशम, निधति और निकाचना । बंध- आत्मा और कर्म के संबंध की पहली अवस्या है। ये चार प्रकारकी है ( 9 ) प्रकृति ( २ ) स्थिति (३) अनुभाग (४) प्रदेश अर्थात् जब कर्मपरमाणुं का आत्मा के साथ संबंध होता है तो उनमें आत्माके योग और कषायरूप भावों से चार बाते होती हैं । प्रथम तुरंत ही उनने ज्ञानादिक को घातने वगैरे स्वभाव पडता है जिसे प्रकृतिबंध कहते हैं । दूसरे उनकी स्थिति भी बंध जाती है कि ये अमुक समय तक आत्मा के साथ बंध रहेंगे जिसे स्थिति बंध कहा जाता है। तीसरे उनमें तीव्र या मंद फल देने की शक्ति का निर्माण होता है यह अनुभाग बंध है। चौथे वे नियत परिमाणमें आत्मासे संबंध हो जाते हैं जिसे प्रदेश बंध कहते हैं। (बंधनेवाले कर्म-परमाणुओं की संख्याओं प्रदेश कहते हैं) आत्माकी ओर आकृष्ट होनेवाले कर्मोंमें अलग अलग प्रकारका स्वभाव पडना और उन परमाणुओं की संख्या का कम या अधिक होना ये दो योग पर निर्भर है तथा उन्हों कर्मपरमाणुओं का आत्माके
જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
જ્ઞાનધારા
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