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कर्म सिद्धांत का आशय है। इस सिद्धांतको जैन, सांख्य, योग, नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक वगेरे आत्मवादी दर्शन तो मानते हैं ही, लेकिन अनात्मवादी बौद्ध दर्शन भी मानता है। इसी तरह ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी भी इसमें प्राय : एकमत हैं। फिर भी कर्मके स्वरूप और उसके फलादान के संबंधों मौलिक मतभेद हैं। कर्मका साधारण अर्थ क्रिया होता है जैसे खाना, पीना, चलना, हँसना, बोलना, विचारना वगेरे। परलोकवादी दार्शनिको के मतसे हमारा प्रत्येक अच्छा या बुरा कार्य अपना संस्कार छोड जाता है। उस संस्कारको न्याय या वैशेषिक दर्शन धर्म या अधर्म कहते हैं। योग दर्शनमें उसे कर्माशय कहा है बौद्ध दर्शनमें उसे वासना और विज्ञप्ति कहा है।
जन्म-जरा-मरण रूप संसारके चक्रमें पड़े हुए प्राणी अज्ञान, अविद्या या मिथ्यात्वसे संलग्न हैं जिससे वे संसारके वास्तविक स्वरूप को समझने में असमर्थ हैं। वो जो भी कार्य करते हैं, अज्ञानके कारण उसमें राग-द्वेष का अभिनिवेश लगा होता है। इसलिए उसका प्रत्येक कार्य आत्मा के बंधन का कारण होता है। इसी प्रकार कर्म नाम क्रिया या प्रवृत्ति का है और उस प्रवृत्तिके मूलमें राग
और द्वेष रहते हैं। यद्यपि प्रवृत्ति, क्रिया या कर्म क्षणिक होता है तथापि उसका संस्कार फलफाल तक स्थायी रहता है। उस प्रकृतिगत संस्कार से ही कर्मों के फल मिलते हैं।
जैनदर्शन के मतानुसार कर्म का स्वरूप अन्य दर्शनों से थोडे अंशमें भिन्न हैं। कर्मग्रंथमें कर्मकी परिभाषा की है, ‘जीव की क्रिया का जो हेतु है वह कर्म है। जैन दर्शन में कर्म केवल एक संस्कार मात्र ही नहीं है। कर्म सिद्धान्त में कर्मका तात्पर्य वे पुद्गल-परमाणु (कामण-वर्गणा) हैं जो रागी-द्वेषी क्रियाओं के परिणाम स्वरूप आत्माकी ओर आकर्षित होकर आत्माके साथ बंधते हैं और कालक्रममें अपने फल प्रदान करते हैं और आत्मामें विशिष्ट भाव प्रदान करते हैं।
जीव चेतनामय अरुपी पदार्थ है उसके साथ लगे हुए सूक्ष्म मलावरणको जिसे हम कर्म कहते हैं ये पुद्गल जड है। जैन दर्शनके अनुसार ये कर्म पुद्गल जिनका आत्माके साथ बंध होता है ये स्वतः नहीं होता, अतः इसका कोई
જ્ઞાનધારા
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જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
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