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________________ _वस्तुतः हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में जैन-दृष्टि का सार यह है कि हिंसा चाहे वह बाह्य हो या आन्तरिक, वह आचार का नियम नहीं हो सकती। अहिंसा सामाजिक सन्दर्भ में : समाजरचना के स्वरूप के बारे में सोचे तो अहिंसक चेतना अर्थात् संवेदनशीलता के अभाव में समाज की कल्पना ही नहीं कि जा सकती है, समाज आत्मीयता, प्रेम और सहयोग के आधार पर खडा होता है, अर्थात् अहिंसा के आधार पर खड़ा होता है। अतः समाज और अहिंसा सहगामी है। जब तक मानव समाज का सदस्य पाशविक प्रवृत्तियों में आस्था रखता है, तब तक सामुदायिक जीवन में आचार्यों द्वारा उद्घोषित ‘मानव जाति एक है' की कल्पना साकार नहीं हो सकती। मानव समाज में मांसाहार एवं तज्जन्य हिंसा को समाप्त करने के लिए कृषि के क्षेत्र में एवं अहिंसक आहार की प्रचुर उपलब्धि के सम्बन्ध में व्यापक अनुसंधान एवं तकनीकी विकास की आवश्यकता है। ___आदर्श अहिंसक समाज की रचना हेतु हमें समाज से अपराधिक प्रवृत्तियों को समाप्त करना होगा और अपराधिक प्रवृत्तियों के नियमन के लिए हमें मानव जाति में संवेदनशीलता, संयम एवं विवेक के तत्वों को विकसित करना होगा। यदि हमारी संवेदनशीलता जागृत बनी रही तो निश्चय ही हम जीवन में हिंसा की मात्रा को अल्पतम करते हुए पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध कर सकेंगे, साथ ही हमारी अहिंसा विधायक बनकर मानव समाज में सेवा की गंगा बहा सकेंगी। सभी धर्म भगवती अहिंसा में संमिलित होते हैं। ज्ञानार्णव ८/३२ में अहिंसा के विषय में कहा है कि अहिंसेव जगन्माताऽहिंसेवानन्दवद्धतिः। अहिंसेव गति : साध्वी श्रीरहिंसैव शाश्वती ।। अर्थात् अहिंसा ही जगत की माता है, वह समस्त जीवों का परिपालन करती है। अहिंसा ही आनन्द का मार्ग है। अहिंसा ही उत्तम गति है और ज्ञानधाश ૨૪૫ જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004539
Book TitleGyandhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvant Barvalia
PublisherSaurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
Publication Year
Total Pages334
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size13 MB
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