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२. आरम्भी - जीवन-निर्वाह के निमित्त, भोजनादि बनाने में होनेवाली हिंसा। ३. उद्योगी - आजीविका उपार्जन अर्थात् उद्योग एवं व्यवसाय के निमित्त
कृषि आदि से उत्पन्न होनेवाली हिंसा। विरोधी - स्वयं और दूसरे लोगों के जीवन एवं स्वत्वों के रक्षण के लिए विवशतावश हिंसा करना। आत्मरक्षा के निमित्त से होनेवाली हिंसा। यह सुरक्षात्मक हिंसा है।
इन चार प्रकार की हिंसाओं में गृहस्थ संकल्पपूर्वक की जानेवाली हिंसा का द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से त्याग करता है, अन्य तीन का त्याग भाव से करता है। क्योंकि द्रव्य से हिंसा होने पर भी उसका भाव हिंसा की ओर नहीं रहता है, किन्तु आत्म-रक्षण की ओर रहता है। इसलिए गृहस्थाश्रम में रहकर अहिंसा का पालन सम्यक् प्रकार से किया जा सकता है।
हिंसा और अहिंसा साधक की मनोदशा पर आधारित है। हिंसा और अहिंसा के विवेक का आधार प्रमुख रूप से आन्तरिक है। हिंसा में संकल्प की प्रमुखता है। संकल्प की उपस्थिति अथवा साधक की मानसिक स्थिति ही हिंसा-अहिंसा के विचार में प्रमुख तत्व है। आचार्य भद्रबाहु ने कहा है कि सावधानी पूर्वक चलने वाले साधु के पैर के नीचे भी कभी-कभी कीट पतंग आदि क्षुद्र प्राणी आ जाते हैं और दब कर मर भी जाते हैं, लेकिन उक्त हिंसा के निमित्त से उसे सूक्ष्म कर्मबंध भी नहीं बताया गया है, क्योंकि यह अन्तर में सर्वतोभावेन उस हिंसा व्यापार से निर्लिप्त होने के कारण निष्पाप है। आचार्य कुन्द-कुन्द प्रवचनसार में कहते है कि बाहर में प्राणी मरे या जिए असंयताचारी को हिंसा का दोष निश्चित रूप से लगता है। परन्तु जो अहिंसा की साधना के लिए प्रयत्नशील है, समितिवान या संयतताचारी है, उसको बाहर से होनी वाली हिंसा के कारण कर्मबन्धन नहीं होता ।१३
हिंसा-अहिंसा के विचार में जिस भावात्मक आन्तरिक पक्ष पर जैनाचार्य इतना अधिक बल देते रहे हैं, उसका महत्त्व निर्विवाद रूप से सभी को स्वीकार्य है।
જ્ઞાનધારા
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જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
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