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अहिंसा मीमांसा (जैन और बौद्धर्शन के संदर्भमें) डॉ. निरंजना वोरा
( ओम. ओ. पीएच. डी. बौद्धर्शन विभाग, गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद में पढ़ाते है। जैन और बौद्ध धर्म पर प्रभुत्व हैं। दोनों धर्म का तुलनात्मक अभ्यास उनकी विशेष रुचि है। देशविदेश में प्रवचन देते है और लेख भी प्रकाशित होते हैं ।)
अहिंसा की अवधारणा बीजरूप में सभी धर्मो में पायी जाती है । यज्ञयाग एवं पशुबलि के समर्थक वैदिक और यहूदी धर्मग्रंथो में भी अहिंसा के स्वर मुखरित हुए हैं। लेकिन जैन और बौद्ध धर्म में अहिंसा के बारे में विशेष सूक्ष्म रूप से विचारणा हुई है। जैन धर्म में पंच महाव्रतों में और बौद्ध धर्म में पंचशील के रूप में अहिंसा को सर्व प्रथम स्थान दिया गया है।
प्रथमं लक्षण : धर्मस्तितिक्षालक्षणस्तथा ।
यस्य कष्टे धृतिर्नास्ति, नाहिंसा तत्र सम्भवेत् ।।
धर्म का पहला लक्षण है अहिंसा और दूसरा लक्षण है तितिक्षा । जो कष्टमैं धैर्य नहीं रख पाता, उसके लिये अहिंसा की साधना सम्भव नहीं । इससे भी आगे बढ़कर अहिंसा को ही परमो धर्म- 'अहिंसा परमो धर्म'- कहा गया है
जैसे सब नदियाँ सागर में मिल कर एकरूप हो जाती हैं, इस तरह सब धर्म अहिंसामें ही पर्यवसित होते हैं ।
જ્ઞાનધારા
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જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
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