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________________ - प्रथम दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 17 ___टीका-इस सूत्र में यह स्पष्ट किया गया है कि हिंसा करने में लगा हुआ, जीव हिंसक, यत्र-मार्ग-पराङ्मुख तथा दया को लेश मात्र से भी न जानने वाला व्यक्ति आत्म-समाधि के मार्ग से बहुत दूर है / क्योंकि जीवों में साम्य भाव के बिना समाधि-स्थान प्राप्त ही नहीं हो सकते और साम्य-भाव बिना भूत-दया के असम्भव है / अतः दया के बिना समाधि स्थान की प्राप्ति दुष्कर ही नहीं, असाध्य है / सिद्ध यह हुआ कि जिसकी आत्मा एकेन्द्रियादि जीवोपघात में लगी है वह असमाधि-स्थान प्राप्त करता है. जिस से आत्म-विराधना और संयम-विराधना का होना स्वाभाविक है और उनका परिणाम दोनों लोकों में अहितकर है / अतः आत्म-समाधि चाहने वाले व्यक्ति को उचित है कि वह प्रत्येक प्राणी की रक्षा करता हुआ समाधि-स्थानों की वृद्धि करे और असमाधि-स्थानों का त्याग कर अपने ध्येय में दूध में मिश्री की तरह लीन हो जाय / तभी आत्मा अलौकिक आनन्द प्राप्त कर सकेगा। अब सूत्रकार समाधि प्रति-बन्धक कषायों का वर्णन करते हैं- . संजलणे / / 8 / / सज्जवनः / / 8 / / पदार्थान्वयः-संजलणे-प्रतिक्षण रोष करने वाला / मूलार्थ-प्रतिक्षण रोष करने वाला | टीका-इस सूत्र में इस विषय को स्पष्ट किया गया है कि आत्मा को कषायक्षय (क्रोधादि मनोविकारों का नाश) और क्षयोपशम के बिना आत्म-समाधि प्राप्त नहीं हो सकती / क्रोध, मान, माया और लोभ से पीड़ित आत्म को समाधि कहाँ ? क्योंकि उस का चित्त तो सदैव विक्षिप्त रहता है / चञ्चल चित्त में कभी भी शान्ति नहीं होती / कषायों से दूषित आत्मा आंधी के दीप की तरह अस्थिर तथा सम्यक् विचार से अत्यन्त दूर रहता है | कषायों के उदय होने पर आत्मा समाधि-स्थान प्राप्त नहीं कर सकता / अतः सूत्र में कहा गया है कि हर समय रोष करने वाले को कभी भी समाधि स्थान की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जब कभी कोई उसको शिक्षा देगा तभी उसको क्रोध उत्पन्न हो जायगा तो फिर किस प्रकार उसको समाधि स्थान की प्राप्ति हो सकती है / अतः सिद्ध
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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