________________ दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् दशमी दशा / जाव-यावत् बंभयारी-ब्रह्मचर्य पालन करने वाले तेण-उस इस प्रकार के विहारेणं-विहार से विहरमाणे-विचरते हुए बहूइं-बहुत वासाइं-वर्षों तक परियागं-सम्यक् पर्याय को पाउणइ-पालन करता है पाउणइत्ता-पालन कर आबाहसि-पीड़ा या दुःख के उप्पन्नंसि-उत्पन्न होने पर वा-अथवा उत्पन्न न होने पर जाव-यावत् भत्ताई-भक्तों को पच्चक्खाएज्जा-क्या वह प्रत्याख्यान करेगा? हंता-हां पच्चक्खाएज्जा-प्रत्याख्यान करेगा क्या वह फिर बहूई-बहुत भत्ताई-भक्तों के अणसणाई-अनशनव्रत को छेदिज्जा-छेदन करेगा? हंता-हां, छेदिज्जा-छेदन करता है और छेदन कर आलोइय-गुरु से अपने पाप की आलोचना कर पडिक्कते-पाप-कर्म से पीछे हटकर समाहिपत्ते-समाधि की प्राप्ति कर कालमासे-कालमास में कालं किच्चा-काल करके अण्णयरेसु-किसी एक देवलोएसु-देव-लोक में देवत्ताए-देवरूप से उवक्त्तारो भवंति-उत्पन्न होता है समणाउसो-हे आयुष्मन् ! श्रमण ! एवं खलु-इस प्रकार निश्चय से तस्स-उस निदाणस्स-निदान कर्म का इमेयारूवे-यह इस प्रकार का पाप-फल-विवागे-पाप-रूप फल-विपाक होता है जं-जिससे वह तेणेव-उसी जन्म में भवग्गहणे-बार-२ जन्म-ग्रहण को रोकने में सिझेज्जा-सिद्धत्व प्राप्त करने में जाव-यावत् णं-वाक्यालंकारे सव्व-दुक्खाणं-सब दुःखों के अंतं करेज्जा अन्त करने में णो संचाएति-समर्थ नहीं हो सकता / मूलार्थ-फिर वह उनके समान हो जाता है जो अनगार, भगवन्त, ईर्या-समिति वाले, भाषा-समिति वाले, ब्रह्मचारी होते हैं और वह इस विहार से विचरण करता हुआ बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय पालन करता है और पालन कर व्याधि के उत्पन्न होने पर या न होने पर यावत् बहुत भक्तों के अनशन-व्रत को धारण करता है / फिर अनशन-व्रत का पालन कर अपने पाप की आलोचना कर पाप से पीछे हटके समाधि को प्राप्त कर काल-मास में काल करके किसी एक देव-लोक में देव-रूप हो जाता है / हे आयुष्मन् ! श्रमण ! इस प्रकार उस निदान-कर्म का पाप-रूप यह फल-विपाक होता है कि जिससे उसके करने वाला उसी जन्म में सिद्ध और सब दुःखों के अन्त करने में समर्थ नहीं हो सकता / टीका-इस सूत्र में वर्णन किया गया है कि जब इस निदान-कर्म को करने वाला व्यक्ति उसी जन्म में मोक्ष-प्राप्ति नहीं कर सकता तो वह भावितात्मा साधु बन जाता है /