________________ 358 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् दशमी दशा यानकं प्रत्युत्प्रेक्षति, प्रत्युत्प्रेक्ष्य यानं प्रत्यवरोहति, यानकं संप्रमार्जयति, संप्रमार्ण्य यानक निष्काशयति, निष्काश्य यानानि समलंकरोति, यानानि समलंकृत्य यानानि वर-मण्डितानि करोति, कृत्वा दूष्यं प्रविणयति, प्रविणीय यानानि संवेष्टयति, संवेष्ट्य:__पदार्थान्वयः-तते. णं-इसके अनन्तर सेणिए-श्रेणिक राया-राजा जाणसालियं-यान-शालिक को सद्दावे इ-बु लाता है जाव-यावत् जाण-सालियं-यान-शालिक को सद्दावित्ता-बुला कर एवं-इस प्रकार वयासी-बोला. . भो देवाणुप्पिया-हे देवों के प्रिय! खिप्पामेव-शीघ्र ही धम्मियं-धार्मिक जाण-प्पवरं-श्रेष्ठ रथ को जुत्तामेव-तय्यार कर उवट्ठवेह-उपस्थित कर मम-मेरी एयमाणत्तियं-इस आज्ञा को पच्चपिणाहि-पूरी कर मुझ से निवेदन करो तते णं-तत्पश्चात् से-वह जाण-सालिए-यान-शालिक सेणियरन्ना-श्रेणिक राजा से एवं वुत्ते समाणे-कहे जाने पर जाव-यावत् हियए-हृदय में हट्ट तुढे-हर्षित और सन्तुष्ट होकर जेणेव-जहां जाण-साला-यान-शाला थी तेणेव-वहीं पर उवागच्छइ-आता है उवागच्छइत्ता-आकर जाण-सालं-यान-शाला में अणुप्पविसइ-प्रवेश करता है अणुप्पविसइता-प्रवेश कर जाणगं-यानों को पच्चुवेक्खइ-देखता है पच्चुवेक्खइत्ता-देख कर जाणं पच्चोरुभति-यानों को नीचे उतारता है, उतार कर दूसं पीहणेइ-उनसे वस्त्र उतारता है दूसं पीहणित्ता-वस्त्रों को उतार कर जाणगं-यानों को संपमज्जति-संप्रमार्जन करता है अर्थात उनसे धूल आदि झाड़ता है संपमज्जिता-संप्रमार्जन कर जाणगं-यानों को णीणेइ-यान-शाला से बाहर निकालता है और णीणेइत्ता-बाहर निकालकर जाणाई-यानों को समलंकरेइ-यन्त्र और योक्त्रादि से अलंकृत करता है जाणाई समलंकरेइत्ता-यानों को अलंकृत कर जाणाई-यानों को वरमंडियाइं करेइ-श्रेष्ठ आभूषणों से मण्डित करता है और मण्डित करेइत्ता-कर जाणाइं-यानों को संवेढइ-संवेष्टन कर एक स्थान पर रखता है और संवेढेइत्ता-एक स्थान पर रखकर: मूलार्थ-इसके अनन्तर श्रेणिक राजा ने यान-शालिक को बुलाया और बुलाकर वह इस प्रकार कहने लगा-"हे देवों के प्रिय ! शीघ्र ही प्रधान धार्मिक रथ को ठीक तय्यार कर उपस्थित करो। मेरी इस आज्ञा को पूरी कर मुझ को सूचित करो"। इस के बाद वह यान-शालिक