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________________ 1 दशमी दशा . हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 345 टीका-इस सूत्र में राजा की आज्ञा का वर्णन किया गया है। महाराज श्रेणिक ने राज-कर्मचारियों को आज्ञा दी कि तुम लोग जाकर पूर्वोक्त स्थानों के अध्यक्षों से कहो चार तीर्थ की स्थापना करने वाले धर्म प्रवर्तक मोक्ष गमन की कामना करने वाले श्रमण भगवान एक गांव से दूसरे गांव में अनुक्रम से सुखपूर्वक विचरते हुए अपने आप में अपनी आत्मा को भावना करने वाले भगवान् महावीर स्वामी इस नगर में पधार जायं तो तुम लोग उनके लिए साधु के योग्य पीठ संस्तारक आदि पदार्थों की आज्ञा दे देना और आज्ञा देकर राजा से उनके आगमन-रूप प्रिय समाचार निवेदन करना / इस कथन से महाराज की श्री भगवान् के प्रति असीम भक्ति ध्वनित होती है। साथ ही यह बात भी भली भांति जानी जाती है कि श्री भगवान् के ठहरने का राजगृह नगर में कोई नियत स्थान नहीं था। अब सूत्रकार कहते हैं कि राज-पुरुषों ने राजाज्ञा का किस प्रकार पालन किया। ततो णं ते कोडुंबिय-पुरिसा सेणिएणं रन्ना भंभसारेणं एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठ जाव हियया जाव एवं सामीति आणाए विणएणं पडिसुणेति-रत्ता एवं सेणियस्स रन्नो अंतिकाओ पडिनिक्खमंति-रत्ता रायगिह-नयरं मज्झं-मज्झेण निग्गच्छंति-रत्ता जाई इमाई भवंति रायगिहस्स बहिया आरामाणि वा जाव जे तत्थ महत्तरगा अण्णया चिट्टति ते एवं वयंति जाव सेणियस्स रन्नो एयमढें पियं निवेदेज्जा पियं भवतु दोच्चंपि तच्चंपि एवं वदइ-रत्ता जाव जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया। ... ततस्ते कौटुम्बिक-पुरुषाः श्रेणिकेन राज्ञा भंभसारेणैवमुक्ताः सन्तो यावद्धृदयेन हृष्टास्तुष्टा यावदेवं स्वामिन् ! इत्याज्ञां विनयेन प्रतिशृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य च श्रेणिकस्य राज्ञोऽन्ति-कात्प्रतिनिष्कामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य राजगृह-नगरं मध्यं-मध्येन निर्गच्छन्ति, निर्गत्य य एते राजगृहस्य बहिरारामा वा. यावद् ये तत्र महत्तरका आज्ञकास्तिष्ठन्ति तानेवं वदन्ति
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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