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________________ - - - 334 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् नवमी दशा 3 एवं अभिसमागम्म सूरा दढपरक्कमा / सव्वमोह-विणिम्मुक्का जाइ-मरणमतिच्छिया / / त्ति बेमि / समत्तं मोहणिज्जठाणं नवमी दसा / एवमभिसमागम्य शूरा दृढपराक्रमाः / सर्वमोह-विनिर्मुक्ता जातिमरणमतिक्रान्ताः / / इति ब्रवीमि / समाप्तानि मोहनीय-स्थानानि नवमी दशा च | पदार्थान्वयः-एवं-इस प्रकार अभिसमागम्म-जानकर सूरा-शूर दढ-दृढ परक्कमा पराक्रम करने वाले सव्व-सब मोहादि कर्मों से विणिमुक्का-मुक्त हो कर जाइ-जन्म मरण-मरण से अतिच्छिया-अतिक्रान्त हो जाते हैं ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं। मोहणिज्जं ठाणं- मोहनीय-स्थान और नवम-दसा-नवमी दशा समत्तं-समाप्त हुई / मूलार्थ-इस प्रकार जाकर, दृढ पराक्रम वाले शूर-वीर आठ प्रकार के कर्मों से मुक्त होकर जन्म-मरण से अतिक्रान्त हो जाते हैं / मोहनीय-स्थान और नवमी दशा समाप्त हुई / टीका-इस सूत्र में प्रस्तुत दशा का उपसंहार किया गया है / पूर्वोक्त मोहनीय कर्मों को भली भांति जान कर तप-कर्म में शूरता दिखाने वाले अथवा अनेक प्रकार के परिषहों को सहन करने में वीर तथा संयम मार्ग में दढ पराक्रम करने वाले अर्थात उपधानादि तपों का अनुष्ठान करने वाले संसार के सब कर्मों से मुक्त होकर जन्म और मरण के भय को अतिक्रमण कर मोक्ष में विराजमान हो जाते हैं / आज तक जितने भी मुक्त हुए हैं वह उक्त विधि से ही हुए और भविष्य में भी जो मुक्त होंगे उनके लिए भी यही मार्ग है | इस सूत्र में मोह शब्द से 'अष्टकर्म-प्रकृति-रूप' आठों कर्मों का ग्रहण किया गया है / इसके अतिरिक्त संकेत से ज्ञान और चरित्र नयों का भी वर्णन किया गया है / 'अभिसमागम्य (भली प्रकार जान कर)' इससे ज्ञान और 'शूरा दृढपराक्रमाः' इससे चरित्र है H
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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