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________________ - 300 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् नवमी दशा - राज्य-च्युत कर स्वयं उसके पद को प्राप्त कर उसकी रानियों और राज-लक्ष्मी का भोग करने लग जाता है और राजा को सब प्रकार से अनधिकरी बना डालता है वह (मन्त्री) महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है / हां, यदि राजा दुराचारी या अन्याय-शील हो और प्रजा के साथ 'सौदास' राजा के समान 'सिंह-हरिण' व्यवहार करता हो तो न्याय की दृष्टि से उस क्रूर राजा के हाथों से दीन प्रजा की रक्षा के लिए मन्त्री लोग यदि उसको पदच्युत कर स्वयं शासन की बागडोर अपने हाथ में ले लें तो महा-मोहनीय के बन्धन में नहीं आते किन्तु ध्यान रहे कि इसमें स्वार्थ-बुद्धि बिलकुल न हो / यदि वे . लोग स्वयं राज्योपभोग की इच्छा से निरपराध राजा को उक्त षड्यन्त्र. से राज्यच्युत करेंगे तो वे किसी प्रकार से भी महा-मोहनीय कर्म के बन्धन से नहीं छूट सकते / सारांश यह निकला कि जो स्वार्थ-बुद्धि से राजा को राज्य-च्युत करता है वह उक्त कर्म के बन्धन में आता है और जो परोपकार या पाना-हित की दृष्टि से करता है वह नहीं आता / अब सूत्रकार इसी विषय से सम्बन्ध रखते हुए कहते हैं :उवगसंतंपि झंपित्ता पडिलोमाहिं वग्गुहिं / भोग-भोगे वियारेइ महामोहं पकुव्वइ / / 10 / / उपगच्छन्तमपि जल्पित्वा प्रतिलोमाभिर्वाग्भिः / भोग-भोगान् विदारयति महामोहं प्रकुरुते / / 10 / / , पदार्थान्वयः-उवगसंतंपि-सन्मुख आते हुए को भी झंपित्ता-अनिष्ट वचन कहकर तथा पडिलोमाहि-प्रतिकूल वग्गुहि-वचनों से उसका तिरस्कार करता है और उसके भोग-भोगे-भोग्य भोगों का विदारेइ-विनाश करता है वह महामोह-महा-मोहनीय कर्म की पकुव्वइ-उपार्जना करता है / ___मूलार्थ और जब वह सन्मुख आवे तो उसका अनिष्ट अथवा प्रतिकूल वचनों से तिरस्कार करता है और उसके शब्दादि भोगों का विनाश करता है वह महा-मोहनीय कर्म के बन्धन में आ जाता है / टीका-इस सूत्र का अन्वय पहले सूत्र से ही है | जब मन्त्री राजा को पूर्वोक्त रीति र से राज्य-च्युत कर देता है फिर यदि वह राजा किसी कारण से उस (मन्त्री) के पास
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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