________________ 282 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् सप्तमी दशा एक-रात्रिकी भिक्षु-प्रतिमां प्रतिपन्नः (स्य) अनगार: (स्य) नित्यं व्युत्सृष्ट-कायः (स्य) यावदधिसहेत कल्पते स अष्टमेन भक्तेनापानकेन बहिर्गामस्य वा यावद् राजधान्या वा, ईषत्-प्राग्भार-गतेन कावेनैक-पुद्गलस्थितया दृष्ट्या, अनिमिष-नयनाभ्याम्, यथाप्रणिहितैर्गात्रैः, सर्वेन्द्रियैर्गुप्तैः, द्वावपि पादौ संहृत्य प्रलम्बित-पाणेः स्थानं स्थातुम् / तत्र स दिव्यं मानुषं तिर्यग्यो-निकञ्च (उपसर्गम्) अधिसहते / तस्य नु तत्रोच्चार-प्रश्रवण उत्पद्येतां न स कल्पत उच्चारप्रश्रवणेऽवग्रहीतुम् / कल्पते स पूर्व-प्रतिलिखिते स्थण्डिले उच्चार-प्रश्रवणे परिष्ठापयितुम् / यथाविध्येव स्थानं स्थातुम् / पदार्थान्वयः-एग-राइयं-एक रात्रि की भिक्खु-पडिम-भिक्षु-प्रतिमा पडिवन्नस्स-प्रतिपन्न अणगारस्स-अनगार का निच्च-नित्य वोसठ्ठ-काए-शरीर व्युत्सृष्ट होता है / वह जाव-यावत् अहियासेइ-परीषहों को सहन करे / णं-वाक्यालङ्कारे से-वह अट्ठमेणं भत्तेणं-अष्टम भक्त (तेले) के साथ अपाणएणं-पानी के बिना गामस्स-ग्राम के वा-अथवा रायहाणिस्स वा-राजधानी के बहिया-बाहर ईसिं-थोड़े से पभार-गएणं-नम्र कायेणं-शरीर से एग-पोग्गल-एक पुद्गल पर ठितीए-स्थित दिट्ठीए-दृष्टि से अणिमिस-नयणे-अनिमिष नयनों से अहापणि-हितेहि-यथा प्रणिहित गाएहिं-गात्रों से सव्विंदिएहिं गुत्तेहिं-सब इन्द्रियों को गुप्त रखकर दोवि-दोनों पाए-पैरों को . साहट्टु-संकुचित कर वग्घारिय-पाणिस्स-भुजाओं को लम्बी कर ठाणं ठाइत्तए-कायोत्सर्ग,करना चाहिए / यदि से- उसको तत्थ-वहां दिव्वं-दे व सम्बन्धी माणुस्सं-मनुष्य सम्बन्धी तिरिक्खजोणिया-तिर्यग्योनि सम्बन्धी उपसर्ग उत्पन्न हो जायं तो जाव-जितने भी वे हों उनको अहिया-सेइ-सहन करे णं-वाक्यालङ्कारे / यदि से-उसको तत्थ-वहां उच्चार-पासवणं-मल-मूत्र को उगिण्हित्तए-रोकना णो कप्पइ-योग्य नहीं / किन्तु से-उसको पुव्व-पडिलेहियंसि-पूर्व प्रतिलिखित थंडिलंसि-स्थण्डिल पर उच्चार-पासवणं-मल-मूत्र का परिठवित्तए-उत्सर्ग करना कप्पइ-योग्य है / शौचादि से निवृत्त होकर फिर अहाविहिमेव-विधिपूर्वक ठाणं ठाइत्तए-कायोत्सर्ग करना चाहिए / मूलार्थ-एक रात्रि की भिक्षु-प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार को शरीर का मोह नहीं होता | वह सब परीषहों को सहन करता है / वह बिना पानी