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________________ 6 सप्तमी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / ર૬૭ છું . / एवं जाणेज्जा-इस प्रकार जान ले कि से-वह ससरक्खे-सचित्त रज अत्ताए-प्रस्वेद से वा-अथवा जलत्ताए वा-शरीर के मल से मलत्ताए-हस्त-सङ्घर्ष से उत्पन्न मल से पंकत्ताए वा-प्रस्वेद (पसीना) जनित शरीर के मल से विद्धत्थे-ध्वंस होकर अचित्त रज हो गया हो तो से-उसको गाहावति-गृहपति के कुलं-कुल में भत्ताए भोजन के लिए वा-अथवा पाणाए-पानी के लिए निक्खमित्तए-निकलना अथवा पविसित्तए-प्रवेश करना कप्पति-उचित है / ण-वाक्यालकङार अर्थ में है / मूलार्थ-मासिकी भिक्षु-प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार को सचित्त रज से लिप्त काय से गृहपति के घर में भोजन अथवा पानी के लिए निकलना या प्रवेश करना योग्य नहीं / यदि वह जान जाय कि सचित्त-रज प्रस्वेद (पसीना) से, शरीर के मल से, हाथों के मल से अथवा प्रस्वेद-जनित-मल से विध्वंस हो गया है, तो उसको गृहपति के घर में भोजन या पानी के लिए निकलना उचित है अन्यथा नहीं / ____टीका-इस सूत्रे में प्रतिपादन किया गया है कि मासिकी भिक्षु-प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार को सचित्त रज से लिप्त काय (शरीर) से कभी भी गृहपति के घर में भोजन के या पानी के लिए नहीं निकलना चाहिए / किन्तु यदि वह जान जाय कि उसके काय पर का सचित्त रज स्वेद से, शरीर के मल से, हाथों के मल से अथवा पसीने से पैदा होने वाले शरीर के मल से नष्ट हो गया है तो वह मुनि गृहपति के कुल में भोजन या पानी के लिए जा सकता है / इस सूत्र का सारांश इतना ही है कि यदि किसी कारण से शरीर सचित्त रज से लिप्त हो जाय तो साधु को अपने उपाश्रय से निकल कर गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करना योग्य नहीं / इसी प्रकार यदि शरीर सचित्त जल से आर्द्र (गीला) हो तो भी भिक्षा के लिए जाना सर्वथा अनुचित है / यदि कोई शङ्का करे कि शरीर सचित्त रज से लिप्त किस प्रकार हो सकता है तो समाधान में कहना चाहिए कि कभी वनादि में जाते हुए साधु के शरीर में मिट्टी की खान से निकल कर सचित्त रज लग सकता है और इसी तरह के अन्य कई कारण हो सकते हैं / सचित्त रज प्रायः महावायु से उड़ता है और शरीर से लग जाता है / महावायु प्रायः ग्रीष्म ऋतु में अधिक चलता है इसीलिए सूत्र में प्रस्वेदादि का पाठ किया है /
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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