________________ - - # 262 .. दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् सप्तमी दशा तत्थेव-वहीं पर उवायणावित्तए-अतिक्रम (व्यतीत) करना कप्पति-योग्य है / किन्तु से-उसको पदमवि-एक पैर भी गमित्तए-गमन करना नो कप्पति-योग्य नहीं / हाँ, से-उसको कल्लं-कल्य (दूसरे दिन का प्रातःकाल) पाउप्पभाए-प्रातःकाल के प्रकट होने पर रयणीए-रजनी (रात) के व्यतीत होने पर जाव-यावत् जलंते-पूर्ण प्रकाश युक्त सूर्य के उदय होने पर पाईणाभिमुहस्स वा-पूर्व दिशा की ओर मुख कर अथवा दाहिणाभिमुहस्स वा-दक्षिण दिशा की ओर मुख कर अथवा पडीणाभिमुहस्स वा-पश्चिम दिशा की ओर मुख कर अथवा उत्तराभिमुहस्स वा-उत्तर की ओर मुख कर अहारियं-ईर्या-समिति के अनुसार रियत्तए-जाना कप्पति-योग्य है / मूलार्थ-मासिकी भिक्षु-प्रतिमा-प्रतिपन्न साधु को जहां पर सूर्यास्त हो जाय वहीं रहना योग्य है; चाहे वहां जल हो, स्थल हो, दुर्गम स्थान हो, निम्न स्थान हो, पर्वत हो, विषम स्थान हो, गर्त हो या गुफा हो, उसको सारी रात्रि वहीं पर व्यतीत करनी चाहिए / वहां से एक पैर भी बढ़ना उचित नहीं / रात्रि समाप्त होने पर प्रातःकाल सूर्योदय के अनन्तर पूर्व, दक्षिण, पश्चिम या उत्तर किसी भी दिशा की ओर मुख कर गमन करना उचित है / वह भी ईर्या-समिति के अनुसार ही करना चाहिए / टीका-पहले किसी सूत्र में उपाश्रयों के विषय में प्रतिपादन किया जा चुका है / इस सूत्र में प्रतिपादन किया जाता है कि यदि किसी प्रतिमा-प्रतिपन्न साधु को उपाश्रय प्राप्त करने से पहले मार्ग में ही सूर्यास्त हो जाय तो उसको जिस स्थान पर सूर्यास्त हो जाय वहीं पर ठहर जाना चाहिए; चाहे वहां जल हो, स्थल हो, जङ्गल हो, पर्वत हो, निम्न या विषम स्थान हो अथवा गुफा या गढ़ा ही क्यों न हो, उसको वहां से कदापि एक कदम भी आगे नहीं जाना चाहिए / प्रातःकाल जब सूर्य अपनी किरणों से प्रत्येक स्थान को प्रकाशित कर दे तब वह पूर्व, पश्चिम, उत्तर या दक्षिण किसी दिशा को भी स्वेच्छानुसार जा सकता है / अथवा प्रातःकाल ध्यानावस्था में जिस दिशा को विहार करना चाहिए / यहां पर यह शंका उपस्थित हो सकती है कि यदि किसी को जल में ही सूर्यास्त