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________________ vave 00 है सप्तमी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 2613 (मच्छर) आदि प्राणी, तिल आदि बीज या रज आदि कोई वस्तु घुस जाय तो उसको वह वस्तु न तो आंख से निकालनी ही चाहिए नांही आंख को जल आदि से शुद्ध करना चाहिए / कहने का तात्पर्य यह है कि रजादि के पड़ने से जो कष्ट होता है उसको सहन कर लेना चाहिए, क्योंकि मुनि-वृत्ति परिषहों के सहन करने के लिए ही प्रतिपादन की गई हैं / किन्तु यदि किसी प्राणी की मृत्यु का भय हो तो उसे निकाल देना चाहिए / सूत्र में 'पाणाणि' इसमें नपुंसकलिङ्ग प्राकृत होने से अशुद्ध नहीं है / अब सूत्रकार स्थिति के विषय में कहते हैं : मासियं भिक्खु-पडिमं पडिवन्नस्स जत्थेव सूरिए अत्थमज्जा तत्थ एव जलंसि वा थलंसि वा दुग्गंसि वा निण्णंसि वा पव्वयंसि वा विसमंसि वा गड्डाए वा दरीए वा कप्पति से तं रयणिं तत्थेव उवायणावित्तए नो से कप्पति पदमवि गमित्तए / कप्पति से कल्लं पाउप्पभाए रयणीए जाव जलंते पाईणाभिमुहस्स वा दाहिणाभिमुहस्स वा पडीणाभिमुहस्स वा उत्तराभिमुहस्स वा अहारियं रियत्तए / मासिकी भिक्षु-प्रतिमा प्रतिपन्नस्य यत्रैव सूर्योऽस्तामियात्तत्रैव जले वा स्थले वा दुर्गे वा निम्ने वा पर्वते वा विषमे वा गर्ने वा दर्यां वा कल्पते स तां रजनीं तत्रैवोपातिनाययितुं नो स कल्पते पदमपि गन्तुम् / कल्पते स कल्ये प्रादुःप्रभायां रजन्यां यावद् ज्वलति प्राचीनाभिमुखस्य वा दक्षिणाभिमुखस्य वा प्रतीचीनाभिमुखस्य वा उत्तराभिमुखस्य वा यथेर्यमर्तुम् / पदार्थान्वयः-मासियं-मासिकी भिक्खु-पडिम पडिवन्नस्स-भिक्षु-प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार को जत्थेव-जहां कहीं सूरिए-सूर्य अत्थमज्जा-अस्त हो जाय तत्थ एव-वहीं चाहे जलंसि-जल में वा-अथवा थलंसि-स्थल में वा-अथवा दुग्गंसि वा-दुर्गम स्थान में / अथवा निण्णंसि-निम्न स्थान में पव्वयंसि-पर्वत में वा-अथवा गड्डाए वा-गढ़े में दरीए वा-पर्वत की गुफा में अथवा अन्य स्थान में से-उस साधु को तं-वह रयणिं-रात्रि -
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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