________________ 242 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् सप्तमी दशा 0000 ___मासिकी भिक्षु-प्रतिमा प्रतिपन्नस्यानगारस्य नित्यं व्युत्सृष्टकायस्य त्यक्तदेहस्य यदि केचिदुपसर्गा उत्पद्यन्ते, तद्यथा-दिव्या वा मानुषा वा तिर्यक्योनिका वा, तानुत्पन्नान् सम्यक् सहते, क्षमते, तितिक्षति, अध्यासति / पदार्थान्वयः-मासियं णं-मासिकी भिक्खु-पडिमं-भिक्षु की प्रतिमा पडिवनस्स-प्रतिपन्न अणगारस्स-गृह आदि से रहित निच्चं-नित्य वोसट्टकाए-शरीर के संस्कार को छोड़ने वाले चियत्तदेहे-शरीर के ममत्व भाव छोड़ने वाले को जे-यदि केइ-कोई उवसग्गा-उपसर्ग उववज्जंति-उत्पन्न होते हैं तं जहा-जैसे दिव्वा वा-देव-सम्बन्धी अथवा माणुसा वा-मानुष-सम्बन्धी अथवा तिरिक्ख-जोणिया-तिर्यग्-योनि-सम्बन्धी, तं-उन उप्पण्णे-उत्पन्न हए उपसर्गों को सम्म-भली भांति सहति-सहन करता है खमति-क्षमा करता है तितिक्खति-अदैन्य-भाव अवलम्बन करता है अहियासेति-निश्चल योगों से काय को अचल बनाता है / णं-वाक्यालङ्कार के लिए है / मलार्थ-मासिकी प्रतिमा-धारी, गृह-रहित, व्युत्सृष्टकाय (शारीरिक संस्कारों को छोड़ने वाले) त्यक्त-शरीर (जिसने शरीर का ममत्व छोड़ दिया है) साधु को यदि कोई उपसर्ग (विपत्ति) उत्पन्न हो जायं तो वह उनको क्षमा-पूर्वक सहन कर लेता है और किसी प्रकार का दैन्य भाव नहीं दिखाता प्रत्युत अचल काय से उनको झेल लेता है / टीका-इस सूत्र में प्रतिमा धारी मुनि के उपनियमों का वर्णन किया गया है / जब मुनि पहली प्रतिमा को ग्रहण करे तो उसको उचित है कि वह अपने शरीर के संस्कारादि तथा ममत्व को दूर कर उपसर्गों का सहन करे / यद्यपि घर छोड़करं दीक्षा लेते समय ही भिक्षु अपने शरीर के संस्कारादि को छोड़ देता है, किन्तु प्रतिमा धारण करते समय इनके त्याग का विशेष ध्यान रखना चाहिए / इसी लिए सूत्रकार ने उसके लिए 'व्युत्सृष्ट-काय' और 'त्यक्त-देह' दो विशेषण दिये हैं / जैसे–“नित्यम्-अनवरतम्, दिवा रात्रौ च, व्युत्सृष्टमिव-सुत्सृष्टं संस्काराकरणात्, कायः शरीरं येनासौ व्युत्सृष्ट-कायः, चीयते औदारिकादि-वर्गणायुद्गलें वृद्धि प्राप्यत इति कायः / चियत्तदेह इति-अनेकपरिषह-सहनात्त्यक्तो देहो येन स त्यक्त-देह इत्यादि / अर्थात् संस्कारादि के न करने से जिसने काय को व्युत्सृष्ट (त्याग) कर दिया है और परिषहों के सहन करने से त्यक्त-देह हो गया है / वह देव, मानुष और तिर्यक्-योनि-सम्बन्धी उपसर्ग है