________________ 230 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् . षष्ठी दशा आहार-विधि से जानना चाहिए / भावाशय यह है कि वह 42 दोषों से रहित शुद्ध भोजन ही ग्रहण कर सकता है / इस सूत्र में “पुव्वागमणेणं' शब्द में सप्तमी विभक्ति के अर्थ में तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया गया है, इससे 'आगमनात्पूर्वकाले' यह अर्थ हुआ / अर्द्ध-मागधी-कोष में इसका पूर्वागमन संस्कृत-अनुवाद किया गया है | "पुव्वाउत्ते (पूर्वायुक्तः) शब्द का जाने से पहले पका हुआ अर्थ होता है / “भिलिंगसूव” मूंग आदि दालों को कहते हैं / यह शब्द यहां सामान्य रूप से सब तरह की दालों को बोधक है / इसी प्रकार चावलों के विषय में भी जानना चाहिए / वे भी यहां सब तरह के अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य पदार्थों का बोध कराते हैं / सारे कथन का सारांश यह निकला कि प्रतिमा-प्रतिपन्न श्रमणोपासक को साधुओं के समान दोष-रहित ही आहार ग्रहण करना चाहिए | ये दशवीं और ग्यारहवीं / प्रतिमाएं जैन वानप्रस्थ रूप हैं / वास्तव में इन्हीं को जैन-वानप्रस्थ कहते हैं / अब सूत्रकार वर्णन करते हैं कि जब श्रमणोपासक भिक्षा के लिए जाये तो किस प्रकार भिाक्षा-याचना करनी चाहिए:___ तस्स णं गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुप्पविट्ठस्स कप्पति एवं वदित्तए "समणोवासगस्स पडिमा-पडिवन्नस्स भिक्खं दलयह" | तं चेव एयारूवेण विहारेण विहरमाणे णं केइ पासित्ता वदिज्जा "केइ आउसो तुमं वत्तव्वं सिया", "समणोवासए पडिमा-पडिवण्णए अहमंसीति” वत्तव्वं सिया / से णं एयारूवेण विहारेण विहरमाणे जहन्नेण एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्को सेण एक्कारस मासे विहरेज्जा | एकादसमा उवा-सग-पडिमा / / 11 / / एयाओ खलु ताओ थेरेहिं भगवंतेहिं एक्कारस उवासग-पडिमाओ पण्णत्ताओ त्ति बेमि / छठा दसा समत्ता /