________________ - षष्ठी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 2115 ____ अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि 'प्रतिपूर्ण पौषध से सूत्रकार का क्या तात्पर्य है ? उत्तर में कहा जाता है कि पूर्वोक्त आहार, शरीर-सत्कार, अब्रह्य और व्यापार का परित्याग कर पौषध व्रत का भली भाँति पालन करने से सूत्रकार का तात्पर्य यह है-"पोषयति पुष्णाति वा कुशल-धर्मान् शुभसमाचारान्, प्राणातिपातविरमणादीन्, यद्यस्तात्तत्तस्मादाहारादित्यागानुष्ठानं-भोजन-देहसत्काराब्रह्म-व्यापार–परिहारकरणमिह प्रक्रमे पोषध इत्येवं भाष्यते / पोषं धत्ते-पुष्णाति धर्मानिति निरुक्तात् / तत उपवसनम्-उपवासोऽवस्थानम्, तत्प्रतिपद्यानु-पश्चात् पालयिता-अनुष्ठाता भवति-संपद्यते, नत्वग्ङ्गीकृत्यैव परित्यजति / अर्थात् जिसके करने से धर्म-पुष्टि और कुशलानुष्ठान की वृद्धि होती है वही पौषध कहलाता है | उसके पूर्वोक्त-(१) आहार-पौषध-एक देश (अंश) या सब आहार का परित्याग करना, (2) शरीर-सत्कार- एक देश या सारे शरीर के सत्कार का परित्याग करना, (3) अब्रह्मचर्य-एक देश या सब प्रकार के अब्रह्मचर्य का परित्याग करमा और (4) व्यापार-पौषध-एक देश या सारे व्यापार का परित्याग करना-चार भेद हैं / इनका अन्य ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है / जिज्ञासुओं को वहीं से जानना चाहिए. 'समवायाङ्ग सूत्र' के एकादशवें स्थान की वृत्ति में पौषध के विषय में लिखा है "पोषं-पुष्टिं कुशलधर्माणां धत्ते-यदाहारपरित्यागादिकमनुष्ठानं तत्पौषधम्, ते नो पवसनम् -अवस्थान-महोरात्र यावदिति पौषधोपवास इति / अथवा पौषधं-पर्वदिनमष्टम्यादिस्तत्रोपवासः-अभक्तार्थः पौषधोपवास इति व्युत्पत्तिः / प्रवृत्तिस्वस्य शब्दस्याहार-शरीरसत्कारा-ब्रह्मचर्य-व्यापार-परिवर्तनेष्विति / तत्र-पौषधोपवासे निरत:-आसक्तः पौषधोपवास-निरतः इत्यादि / अर्थात् जिसके करने से कुशल धर्मानुष्ठान की पुष्टि होती हो उसी को पौषध व्रत कहते हैं / यह चौथी प्रतिमा पूर्वोक्त गुणों से युक्त और पूर्वोक्त प्रतिमाओं के समय सहित चार मास की होती है / इसमें पौषध और सामायिक व्रतों की विशेषतया सफलता होती है / अब सूत्रकार पांचवीं प्रतिमा का विषय कहते हैं: अहावरा पंचमा उवासग-पडिमा / सव्व-धम्म-रुई यावि भवति / तस्स णं बहूई सीलवय....जाव सम्म अणु-पालित्ता भवति / से णं सामाइयं....तहेव, से णं चउद्दसी....तहेव, से णं एग-राइयं उवासग-पडिमं सम्मं अणुपालित्ता भवति / से णं