________________ 204 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् षष्ठी दशा पदार्थों के स्वरूप को नय और प्रमाण पूर्वक अवश्य जान लेना चाहिए / यदि उसमें भी हृदय के कपट के कारण शङ्काएँ उत्पन्न होने लगें तो भगवान् के वचनों की यथार्थता में विश्वास कर निःशङ्क भाव से चित्त-वृति को स्थिर कर लेना चाहिए / श्रावक को उन सबका ज्ञान करना चाहिए / उसको श्रुत और चारित्र धर्म की ओर रुचि करनी चाहिए / किन्तु ध्यान रहे कि जिस प्रकार श्रुत-धर्म और अर्थ-धर्म दो पृथक् धर्म प्रतिपादन किये हैं इसी प्रकार चारित्र-धर्म भी देश-चारित्र-धर्म और सर्व-चारित्र-धर्म दो पृथक धर्म प्रतिपादन किये हैं। उसको शान्ति आदि श्रमण-धर्म की ओर भी रुचि करनी चाहिए, क्योंकि सूत्र में लिखा है कि जितने भी धर्म हैं, जैसे-ग्राम-धर्म, नगर-धर्म, राष्ट्र-धर्म आदि दश प्रकार के धर्म हैं-उन सब के जानने की रुचि होनी चाहिए / जब वह सबं धर्मों को भली भांति जान लेगा तो तब उसकी रुचि होनी चाहिए / जब वह सब धर्मों को भली भांति जान लेगा तो तब उसकी रूचि धार्मिक कार्यों में अच्छी तरह हो सकती है / इसीलिए सूत्रकार ने आहिय (आस्तिक)-वादी कहा है-“जीवादिपदार्थः सार्थोऽस्तीति मतिरस्येत्यास्तिक: अर्थात् जो जीवादि पदार्थों में अस्तित्व की मति रखता है उसी को आस्तिक कहते हैं | जो आस्तिक है वह 'आस्तिक-भाव' प्रत्येक को समझा सकता है। और उसकी व्याख्या कर सकता है, अतः उसको उपदेश देने का भी अधिकार है / उसका आत्मा धर्म-राग में रङ्ग जाता है और फिर वह देवादि की सहायता भी नहीं चाहता, क्योंकि वह उपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिकता-इन पांच प्रकार के सम्यग्-वाद के लक्षणों से युक्त होता है / अतः आस्तिक्य-भाव के होने से ही पहली प्रतिमा दर्शन-प्रतिमा कहलाती है / जो व्यक्ति आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करता है वह मोक्षादि पदार्थों का अस्तित्व सहज ही में स्वीकार कर सकता है / पहले सूत्र में कहा गया है कि आस्तिक-वादी आस्तिक-प्रज्ञ होता है "आस्तिक्ये-सफलपदार्थास्तित्वे प्रज्ञा-विचारणा सदर्थपर्यालो-चनरूपा यस्स स आस्तिक्य-प्रज्ञः” अर्थात् सकल पदार्थों के सदर्थ विचारने में जिसकी बुद्धि है उसको आस्तिक्य-प्रज्ञ कहते हैं | ___पहली अर्थात् दर्शन-प्रतिमा में आत्मा आस्तिक भाव में स्थित हो जाता है किन्तु वह शील-ब्रह्मचर्य आदि दूसरे व्रतों-अनुव्रतादि पांच-में प्रविष्ट नहीं होता / तात्पर्य यह है कि वह शील-व्रत, पांच अनुव्रत, सात शिक्षा या गुण-व्रत-जो शील-व्रतों की रक्षा करने वाले हैं-विरमण रूप सामायिक व्रत, प्रत्याख्यान रूप देशावकाशिक व्रत और पर्व दिनों में पौषधोपवास व्रत आदि व्रतों को ग्रहण नहीं करता / ऊपर कही हुई व्रतों की व्याख्या चूर्णीकार इस प्रकार करते हैं "शीलानि सामायिक-देशाक्काशिक