________________ 166 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् षष्ठी दशा के समान तीक्ष्ण है | वहां ज्योतिश्चक्र के न होने से निरन्तर अन्धकार रहता है / परमाधर्मी देव नारकियों को दुःख देने के लिए अनेक अनिष्ट पदार्थों को वैक्रिय (विकुर्वणा) करते हैं, जैसे-मेद (चरवी), वसा, मांस, रुधिर और पूत आदि की विकुर्वणा कर उनसे भूमि-तल का लेप किया होता है / कुत्सित पदार्थों की उत्कट गन्ध से सब नरक व्याप्त रहते हैं / कृष्णाग्नि की प्रभा के समान वहां के सब पदार्थ तप्त रहते हैं / नारकी जीव सदैव दुःसह वेदना का अनुभव करते हैं | उनकी निद्रा, प्रचला (बैठ बैठ निद्रा लेना), स्मृति, रति, बुद्धि, धृति आदि सब नष्ट हो जाती हैं। इससे वे सदैव उज्ज्वल, निर्मल, विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, चण्ड, रौद्र, रूक्ष, दुर्गम, अति दुःखद और तीव्र वेदना का अनुभव करते हुए विचरते हैं / तात्पर्य यह है कि नरक में निमेष-मात्र के लिए भी सुख नहीं होता / सदैव उत्कट से उत्कट दुःख का अनुभव वहां करना पड़ता है / यह सब दुःख पूर्व-जन्म के उन बुरे कर्मों का फल होता है, जिनको आत्मा नास्तिक मत का अनुयायी होकर करता था / अब सूत्रकार उक्त विषय को ही दृष्टान्त द्वारा परिपुष्ट करते हैं: से जहा-नामए रुक्खे सिया, पव्वयग्गे जाए मूल-छिन्ने अग्गे गरुए, जओ निन्नं, जओ दुग्गं, जओ विसम, तओ पवडति, एवामेव तहप्पगारे पुरिस-जाए गब्भाओ गब्भं ज़म्माओ जम्म माराओ मारं दुक्खाओ दुक्खं दाहिण-गामि-नेरइए कण्ह-पक्खिए आगमेसाणं दुल्लभ-बोहिए यावि भवति / से तं अकिरिया-वाई यावि भवइ / अथ यथा नामको वृक्षः स्यात्, पर्वताने जातश्छिन्नमूलोऽग्रे गुरुको यतो निम्नं, यतो दुर्गं, यतो विषमं, ततः पतति, एवमेव तथा-प्रकारः पुरुष-जातो गर्भाद् गर्भं जन्मनो जन्म मारान् (मृत्योः) मारं दुःखाद् दुःखं दक्षिण-गामि-नैरयिकः कृष्ण-पाक्षिक आगमिष्यति काले दुर्लभ-बोधी चापि भवति / अथा सावाक्रिय-वादी चापि भवति /