________________ 186 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् षष्ठी दशा इसको दावाग्नि (वन की अग्नि) में जला दो / इसके मांस के कौड़ी के समान टुकड़े कर इसी को खिला दो / इसके अन्न और पानी का निरोध कर दो / इसको आयु-पर्यन्त बन्धन में रखों / इसको किसी और कुमृत्यु से मार डालो, इत्यादि अनेक प्रकार के घृणित और कठोर दण्ड वह अपनी बाहिरी परिषद् के लिए विधान करता है / न्याय तो वह जानता ही नहीं / संसार में प्रत्येक व्यक्ति को न्याय के मार्ग का ही अनुसरण करना चाहिए, अन्याय के मार्ग का नहीं | नास्तिक सिद्धान्तों पर चलने से आत्मा न्याय-मार्ग को भूल अन्याय-शील बन जाता है / अतः नास्तिक-सिद्धान्तों का सर्वथा बहिष्कार करना चाहिए / इस सूत्र में कुछ एक स्थानों पर षष्ठी के स्थान पर भी 'इम' द्वितीया का प्रयोग हुआ है यह दोषाधायक नहीं, क्योंकि प्राकृत में प्रायः ऐसा विभक्ति व्यत्यय हो ही जाता ___ अब सूत्रकार वर्णन करते हैं कि नास्तिक का आभ्यन्तरी परिषद् के साथ कैसा बर्ताव होता है: जाविय सा अभितरिया परिसा भवति, तं जहा-मायाति वा पियाति वा भायाति वा भगिणीति वा भज्जाति वा धूयाति वा सुण्हाति वा तेसिंपि य णं अण्णयरंसि अहा-लहुयंसि अवराहसि सयमेव गरुयं दंडं वत्तेति, तं जहाः___यापि च साभ्यन्तरी परिषद् भवति, तद्यथा-मातेति वा पितेति वा भ्रातेति वा भगिनीति वा भार्येति वा दुहितेति वा स्नुषेति वा तेषामपि च न्वन्यतरस्मिन् यथा-लघुकेऽपराधे स्वयमेव गुरुकं दण्डं वर्तयति, तद्यथाः पदार्थान्वयः-जाविय-और जो सा-वह अभिंतरिया-आभ्यन्तरी (भीतरी) परिसा-परिषद् भवति होती है तं जहा-जैसे मायाति-माता वा-अथवा पियाति-पिता वा-अथवा भायाति भ्राता वा अथवा भगिणीति-भगिनी वा अथवा भज्जाति-भार्या वा-अथवा धूयाति-दुहिता (कन्या) सुण्हाति-पुत्र-वधू यहां सर्वत्र "ति' इति शब्द पद की समाप्ति के अर्थ में है “वा” शब्द समूह वाचक है तेसिंपि य-उनको भी अण्णयरंसि-किसी अहा