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________________ है 150 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् पंचमी दशा देखने लग जाता है, क्योंकि जिस आत्मा से अवधि-दर्शनावरणीय कर्म दूर हो जाता है उसका 'दर्शन' स्वभावतः निर्मल हो जाता है / इस सूत्र से भली भांति ज्ञात होता है कि अशुभ लेश्याओं को दूर करने और तप द्वारा आत्म-शुद्धि करने से ही आत्मा निर्मल होता है / अब सूत्रकार मनःपर्यव-ज्ञान का विषय वर्णन करते हैं:सुसमाहिएलेस्सस्स अवितक्कस्स भिक्खुणो / सव्वतो विप्पमुक्कस्स आया जाणाइ पज्जवे / / 7 / / ... सुसमाहित-लेश्यस्य अवितर्कस्य भिक्षोः / सर्वतो विप्रमुक्तस्य आत्मा जानाति पर्यवान् / / 7 / / पदार्थान्वयः-सुसमाहिए-लेस्सस्स-जो भली प्रकार स्थापित शुभ लेश्याओं को धारण करने वाला है, अवितक्कस्स-फल की इच्छा नहीं करता, भिक्खुणो-भिक्षाचरी द्वारा निर्वाह करता है और सव्वतो-सब प्रकार से विप्पमुक्कस्स-बन्धनों से मुक्त है वह आया-आत्मा पज्जवे-मन के पर्यवों को जाणइ-जानता है / ___मूलार्थ-शुभ लेश्याओं को धारण करने वाला, निश्चल-चित्त, भिक्षाचरी से निर्वाह करने वाला और सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त आत्मा मन के पर्यवों (उत्तरोत्तर अवस्था अथवा रूपान्तर) को जान सकता है / अर्थात् उसी को मनः-पर्यव-ज्ञान हो सकता है | ___टीका-इस सूत्र में वर्णन किया गया है कि जिस आत्मा के भावों में तेजः, पद्म और शुक्ल लेश्याएं विद्यमान हैं, जिस आत्मा में निश्चल और दृढ़ विश्वास है, जो सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त है और जो भिक्षाचरी से निर्वाह करने वाला है उसी को मनः-पर्यव-ज्ञान उत्पन्न हो सकता है, जिससे वह मन के पर्यायों का ज्ञान कर सकता है / इससे इसका भी स्पष्ट ज्ञान होता है कि जिस आत्मा के अन्तःकरण में शुभ (तेजः, पद्म और शुल्क) लेश्याएं वर्तमान हों उसी को सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप सम्बन्धी समाधि उत्पन्न हो सकती है / जिस आत्मा में पूर्वोक्त समाधि का उदय होता है उसी को मनः-पर्यव-ज्ञान समाधि को लाभ हो सकता है / Hd
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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