________________ 3, और अनुयोगद्वारशास्त्र चार छेदशास्त्र-व्यवहारशास्त्र 1, बृहत्कल्पशास्त्र 2, दशाश्रुतस्कन्धशास्त्र 3, निशीथशास्त्र 4, एवं 31 और 32 वाँ आवश्यकशास्त्र / इस प्रकार 32 आगमों की संज्ञा वर्तमान काल में मानी जाती है / किन्तु यह संज्ञा अर्वाचीन प्रतीत होती है / कारण यह है कि नंदीसिद्धांत में सब सिद्धान्तों की चार प्रकार से निम्नलिखित संज्ञाएँ वर्णन की गई हैं / जैसे-अंगशास्त्र, उत्कालिकशास्त्र, कालिकशास्त्र और आवश्यकशास्त्र / जो उपांगशास्त्र और चार मूल चार छेदशास्त्र हैं, वे सब कालिक और उत्कालिक शास्त्रों के ही अन्तर्गत लिए गये हैं / देखो-नंदीसिद्धान्त-श्रुतज्ञानविषय / ____ तथा औपपातिक आदि शास्त्रों में कहीं पर भी यह पाठ नहीं है कि-यह उपांगशास्त्र है / जैसे पाँचवें अंग के आगे के अंगशास्त्रों के आदि में यह पाठ आता है कि, भगवान् जंबूस्वामी जी कहते हैं-“हे भगवन् ! मैंने छठे अंगशास्त्र के अर्थ को तो सुन लिया है, किन्तु सातवें अंगशास्त्र का श्रीश्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या अर्थ वर्णन किया है ?" इत्यादि / किन्तु उपांगशास्त्रों में यह शैली नहीं देखी जाती, और नाही शास्त्रकर्त्ता ने उनकी उपांग संज्ञा कही है / किन्तु केवल निरयावलिकासूत्र के आदि में यह सूत्र अवश्य विद्यमान है / तथा च पाठ:___ "तएणं से भगवं जंबू जातसड्ढे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-उवंगाणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं, एवं उवंगाणं पंचवग्गा पण्णत्ता / तं जहा-निरयावलियाओ 1 कप्पवडिंसियाओ 2 पुफियाओ 3 पुप्फचूलियाओ 4 वण्हिदसाओ ५"-इत्यादि / इस पाठ के आगे वर्गों के कतिपय अध्ययनों का वर्णन किया गया है / इस पाठ से यह स्फुट नहीं हो सकता कि-ये उपांगों के पाँच वर्ग कौन कौन से अंगशास्त्र के उपांग हैं / यद्यपि पूर्वाचार्यों ने अंग और उपांगों की कल्पना करके अंगों के साथ उपांग जोड़ दिये हैं, किन्तु यह विषय विचारणीय है / कालिक और उत्कालिक संज्ञा स्थानांगादि शास्त्रों में होने से बहुत प्राचीन प्रतीत होती है / किन्तु उपांगादि संज्ञा भी उपादेय ही है / अथवा यह विषय विद्वानों के लिये विचारणीय है / आचार्य हेमचन्द्र जी ने अपने बनाये 'अभिधानचिंतामणि' नामक कोष में अंगशास्त्रों का नामोल्लेख करते हुए केवल उपांगयुक्त अंगशास्त्र हैं' ऐसा कहकर विषय की पूर्ति कर दी है / किन्तु जिस प्रकार