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________________ - - - चतुर्थी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 115 तप के सम्पूर्ण बाह्य (बाहरी) और आभ्यन्तर (भीतरी) भेदों का जानना ही तप-सामाचारी होती है। ___ गण की सारणा वारणादि द्वारा भली भांति रक्षा करना, गण में स्थित रोगी, बाल, वृद्ध और दुर्बल साधुओं की यथोचित व्यवस्था करना, अन्य गण के साथ उनके योग्य बर्ताव करना, और अपने गण में सम्यक्, ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि करते रहना ही गण-सामाचारी हे / ___ एकाकि-विहार का साङ्गोपांग (भेद ओर उपभेदों के सहित) ज्ञान करना, उसकी विधि का ध्यान पूर्वक ग्रहण करना, स्वयं एकाकि-विहार की प्रतिज्ञा करनी, दूसरों को उसके लिए प्रोत्साहित करना तथा जिन साधुओं ने गणी की आज्ञानुसार इसकी प्रतिज्ञा धारण की हुई है उन पर दृष्टि रखना आदि इससे सम्बन्ध रखने वाली सब बातों का ध्यान रखना ही एकाक्रि-विहार-सामाचारी कहलाती है / गणी को उचित है कि शिष्यों को उक्त सामाचारियों का बोध कराता रहे / आचार-सम्पन्न व्यक्ति ही श्रुत के योग्य होता है, अतः सूत्रकार श्रुत-विनय के विषय में कहते हैं: से किं तं सुय-विणए ? सुय-विणए चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुत्तं वाएइ, अत्थं वाएइ, हियं वाएइ, निस्सेसं वाएइ / से तं सुय-विणए / / 2 / / . अथ कोऽसौ श्रुत-विनयः ? श्रुत-विनयश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सूत्रं वाचयति, अर्थं वाचयति, हितं वाचयति, निःशेषं वाचयति / सैषः श्रुतविनयः / / 2 / / पदार्थान्वयः-से किं तं-वह कौनसा सुय-विणए-श्रुत-विनय है ? (गुरू कहते) हैं सुय-विणए-श्रुत-विनय चउविहे-चार प्रकार का पण्णत्ते-प्रतिपादन किया है, तं जहा-जैसे-सुत्तं वाएइ-सूत्र पढ़ाना अत्थं वाएइ-अर्थ पढ़ाना हितं वाएइ-हित-वाचना प्रदान करना निस्सेसं वाएइ-निःशेष-वाचना प्रदान करना / से तं-यही सुय-विणए-श्रुत-विनय है /
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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