SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 76 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् तृतीय दशा चाहिए और किस विधि से भोजन करने से उसको आशातना लगती है / जैसे-शिष्य भिक्षा से आहार लेकर उपाश्रय में वापिस आया / कोई कारण ऐसा हो गया कि उसको रत्नाकर के साथ एक ही पात्र में भोजन करना पड़ा / भोजन करते हुए यदि वह (शिष्य) बड़े-२ ग्रास करने लगे, शीघ्र-२ खाने लगे या सुन्दर, सुदर्शनीय, मनोज्ञ, मन-इच्छित, घृतादि से स्निग्ध अथवा स्वादिष्ट रूक्ष (पापड़ आदि) पदार्थों को शीघ्र-२ निकाल कर खाने लगे तो उसको आशातना लगती है / अतः ऐसा कदापि नहीं करना चाहिए / इससे एक तो रस-लोलुपता (अच्छे-२ स्वादिष्ट पदार्थों की ओर रूचि) बढ़ती है, दूसरे विनय-भङ्ग होता है। . अथवा एक ही पात्र में भोजन नहीं करते, किन्तु आनीत पदार्थों में से शिष्य अपने मन के अनुकूल पदार्थों को अलग रख कर शेष रत्नाकर को दे तो भी उसको आशातना लगती है / यदि कभी शिष्य जितने पदार्थ लावे उन सबको अपने मन के अनुकूल जानकर थोड़े से रत्नाकर को देकर बाकी सब अपने लिए रख ले तो भी उसको आशातना लगेगी। सूत्र में "डागं डागं" आदि का दो बार प्रयोग वीप्सा अर्थ में है | 'डाक' शब्द से राइ आदि शाक-पात्र (हरे शाक) का ग्रहण करना चाहिए / तथा "उसढ' शब्द से रस और सुगन्धि वाला भोजन जानना चाहिए / "रसित' शब्द से अमलादि रसों से युक्त मधुर और स्वादिष्ट भोजन जानने चाहिए / तथा जो भोजन मन को इष्ट या प्रिय हो उसको ‘मनोज्ञ' कहते हैं | 'मणाम' (मन-आप्त) उसे कहते हैं जिसके लिए बार-बार इच्छा बनी रहे और जो कभी स्मृति-पथ से न उतरे अर्थात् सदा चित्त को प्रसन्न करने वाले भोजन को "मणाम भोजन कहते हैं | ऊपर कहे हुए पदार्थों को यदि शीघ्र-२ खाने लगे तो शिष्य को आशातना लगती है। भोजन करते हुए सदा ध्यान रखना चाहिए कि आहार संयम-वृत्ति के निर्वाह के लिए ही होता है न कि जिह्वा-लौल्य और शरीर की सुन्दरता बढ़ाने के लिए | अब सूत्रकार वचन से सम्बन्ध रखने वाली आशातना का वर्णन करते हैं: सेहे रायणियस्स वाहरमाणस्स अपडिसुणित्ता भवइ आसायणा सेहस्स / / 16 / /
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy