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________________ . - - तृतीय दशा.. हिन्दीभाषाटीकासहितम् / अब सूत्रकार वचन की आशातनाओं का वर्णन करते है: केइ रायणियस्स पुव्व-संलवित्तए सिया, तं सेहे पुव्वतरागं आलवइ पच्छा रायणिए भवइ आसायणा सेहस्स / / 12 / / कश्चिद्रानिकस्य पूर्व-संलपतव्यः स्यात्, तं शैक्षः पूर्वतरक-मालपति पश्चाद् रात्निको भवत्याशातना शैक्षस्य / / 12 / / पदार्थान्वयः-केइ-कोई रायणियस्स-रत्नाकर के पुव्व-पूर्व संलवित्तए सिया–सम्भाषण करने योग्य हो, तं-उसके साथ सेहे-शिष्य पुव्वतरागं-पहिले ही आलवइ-सम्माषण करता है या करने लगे पच्छा रायणिए और रत्नाकर पीछे सम्भाषण करे तो सेहस्स-शिष्य को आसायणा-आशातना भवइ-होती है / __ मूलार्थ-कोई व्यक्ति रत्नाकर के पूर्व-सम्भाषणा करने योग्य है, यदि शिष्य गुरू के पहिले ही उससे सम्भाषण करने लगे तो शिष्य को आशातना लगती है। टीका-इस सूत्र में वचन विषयक विनय का वर्णन किया गया है / जैसे-कोई रत्नाकर का पूर्व-परिचित व्यक्ति उससे मिलने आया | उसने रत्नाकर से कुशल आदि पूछी / अब रत्नाकर के उत्तर देने के पूर्व ही यदि शिष्य उससे वार्तालाप करने लग जाए तो शिष्य को आशातना लगती है ; क्योंकि इससे उस (शिष्य) के अविनय, असभ्यता और अयोग्यता का नगन परिचय मिलता है | तीर्थङ्कर और गणधरों ने सब क्रियाएं पहिले रत्नाकर को करने की आज्ञा दी है / उसकी आज्ञा से शिष्य सम्भाषण आदि क्रियाएं रत्नाकर से पहिले भी कर सकता है, किन्तु बिना उसकी आज्ञा के कदापि नहीं कर सकता / 'कश्चित्' शब्द से पाखण्डी या गृहस्थ, स्त्री या पुरूष, स्वपाक्षिक या परपाक्षिक, साधु या उपासक जानने चाहिएं / तात्पर्य यह निकला है कि किसी भी ऐसे व्यक्ति के साथ जो रत्नाकर के सम्भाषण करने योग्य है, शिष्य का गुरू या रत्नाकर से पूर्व सम्भाषण करना सर्वथा अनुचित और सभ्यता के बाहिर है / यदि वह ऐसा करेगा तो उसको आशातना लगेगी / - -
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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