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________________ द्वितीया दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 413 - दूसरा “प्रामित्यकं दोष है / इसका भाव यह है कि यदि कोई गृहस्थी अन्य गृहस्थी से वस्तु उधार लेकर किसी मुनि को समर्पण करना चाहे तो उस (मुनि) को उचित है कि ऐसा पदार्थ कभी ग्रहण न करे, क्योंकि ऐसा करने से अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं / इसके भी लौकिक और लोकोत्तर दो भेद हैं / लौकिक गृहस्थों के और लोकोत्तर साधुओं के परस्पर लेन देन से सम्बन्ध रखता है / जैसे-"कोपि, कियद्दिनान्तरं ते प्रत्यावर्तयिष्यामीति, एतदिनानन्तरं तवैतत्सदृशं वस्तु दास्यामीति वा प्रतिज्ञाय, कस्यचिद्वस्त्रादिकं गृहीणयात्” अर्थात् यदि कोई साधु अन्य किसी साधु से कुछ समय बाद लौटाने की अथवा उसके समान अन्य वस्त्रादि वस्तु देने की प्रतिज्ञा कर वस्त्रादिक ले तो अनेक दोषों की प्राप्ति होती है-पहले पक्ष में, लिए हुए वस्त्रों के मलिन होने से, फटजाने से या चुराये जाने से परस्पर कलह होने की सम्भावना है और दूसरे में भी यही दोष आ सकता है; क्योंकि बहुत सम्भव है कि लेने वाले को उसकी वस्तु के बदले दी हुई वस्तु पसन्द न आए और दोनों (लेने और देने वाले) में वैमनस्य हो जाए / सिद्ध यह हुआ कि साधुओं को ऐसे कार्य कभी न करने चाहिएँ / तीसरा दोष “आच्छिन्नं" हैं, इसका तात्पर्य यह है कि किसी से छीन कर दिया हुआ पदार्थ मुनि को कदापि न लेना चाहिए; क्योंकि ऐसा करने से अनेक दोषं की सम्भावना हैं / इसके भी स्वामि-विषयक, प्रभु-विषयक, और स्तेन-विषयक तीन भेद हैं / ___ प्रश्न यह होता है कि स्वामी और प्रभु के अर्थ में क्या अन्तर है ? उत्तर यह है कि स्वामी ग्राम के नायक को कहते हैं और प्रभु घर के मालिक को / इनसे छीन कर तथा चोर से लेकर देने में अप्रीति, कलह, अन्तरायादि अनेक दोष होते हैं; अतः मुनि को ऐसे पदार्थ कभी ग्रहण न करने चाहिएँ / . सर्व-साधारण पदार्थ बिना सबकी सम्मति के एक व्यक्ति की विज्ञप्ति मात्र से न लेना चाहिए, न केवल एक की बल्कि सर्व-सम्मति के बिना बहुत से भी सर्व-साधारण पदार्थ नहीं लेना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से परस्पर कलह होने की सम्भावना है / जिससे आत्म और संयम-विराधना होना बहुत सम्भव है / उदाहरणार्थ-जैसे कोई कुछ व्यक्तियों की सम्मिलित वस्तुओं का विक्रय कर रहा है, उसने भक्ति-भाव से उनमें से कुछ किसी साधु के समर्पण कर दी और साधु ने उनको ग्रहण कर लिया; अब यदि साथियों को इसका पता लग जाए तो साधु अथवा विशेषतया विक्रेता को इससे बहुत हानि है / इसका असर उसके जीवन तक पर पड़ सकता है / अतः मुनि को ऐसे पदार्थ न लेने चाहिएं /
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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