________________ 1 38 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् द्वितीया दशा के रोग उत्पन्न हो सकते हैं, अतः आत्मरक्षा के लिए भी रात्रि में भोजन न करना चाहिए / तीसरे में समाधि-स्थ साधुओं की समाधि में रात्रि भोजन से विघ्न पड़ता है, अतः रात्रि-भोजन सर्वथा त्याज्य है / इन सबके अतिरिक्त रात्रि में भोजन न करने का एक विशेष लाभ यह भी है कि इससे तप कर्म सहज ही में सम्पन्न हो जाता है, क्योंकि रात्रि-भोजन के त्याग से आयु का शेष सारा आधा भाग तप में ही लग जाएगा / __ जैन भिक्षुओं के लिए तो यह नियम परमावश्यक है; क्योंकि पांच महाव्रतों के पश्चात् ही इसका पाठ पढ़ा जाता है, इसलिए इसका समावेश मूल गुणों में ही किया गया ___ सिद्ध यह हुआ कि रात्रि में भोजन करने से एक तो श्रीभगवान् की आज्ञा भंग होती है, दूसरे मूल-गुण-विराधना नामक दोष लगता है / अतः सूर्यास्त के अनन्तर और सूर्योदय से पूर्व कदापि भोजन न करना चाहिए / इतना ही नहीं बल्कि जब तक सूर्य की सम्पूर्ण किरण उदय न हो गई हों उस समय तक भी भोजन न करना चाहिए; क्योंकि ऐसा करने पर भी दोष होता है / अब सूत्रकार साधुओं के ग्रहण करने योग्य भोज्य पदार्थों के विषय में कहते हैं:आहा-कम्मं भुंजमाणे सबले / / 4 / / / आधा-कर्म भुञ्जानः शबलः / / 4 / / पदार्थान्वयः-आहा-कम्म-आधा-कर्म भुंजमाणे-भोगते हुए सबले-शबल दोष लगता मूलार्थ-आधा-कर्म आहार करने वाले व्यक्ति को शबल दोष लगता टीका-आधा कर्म आहार करने से आत्मा शबल-दोष-युक्त होता है / अब यह प्रश्न होता है कि आधा-कर्म आहार किसे कहते हैं ? उत्तर में कहा जाता है कि साधु के निमित्त बनाये हुए भोजन में यदि षट-काय वध हो जाय तथा उस (साधु) के लिए यदि स्व-साधारण (अपने भोजन के समान) भोजन तैयार किया जाए तो उसे आधा-कर्म आहार कहेंगे / इस बात को वृत्ति में स्पष्ट कर दिया गया है: